"जंगली जानवर के बदले / योसिफ़ ब्रोदस्की" के अवतरणों में अंतर
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जंगली जानवर के बदले | जंगली जानवर के बदले | ||
मैं घुस गया था पिंजरे में । | मैं घुस गया था पिंजरे में । | ||
− | गला डाली मैंने अपनी उम्र चीख़ते- | + | गला डाली मैंने अपनी उम्र चीख़ते-चिल्लाते बैरक में । |
समुद्र के किनारे मैं खेलता रहा रूलैट | समुद्र के किनारे मैं खेलता रहा रूलैट | ||
खाना खाता था मैं पता नहीं किसके साथ । | खाना खाता था मैं पता नहीं किसके साथ । | ||
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इतने लोग भूल चुके हैं अब मुझे | इतने लोग भूल चुके हैं अब मुझे | ||
कि पूरा शहर भर सकता है उनसे । | कि पूरा शहर भर सकता है उनसे । | ||
− | मैं | + | मैं स्तेपी के मैदानों में भटकता रहा जिनकी यादों में |
ताज़ा थी चीख़ें, | ताज़ा थी चीख़ें, | ||
पहनता था कपड़े जो फिर से आ जाते थे फ़ैशन में | पहनता था कपड़े जो फिर से आ जाते थे फ़ैशन में | ||
बोता था जई, खलिहान को ढकता था तिरपाल से | बोता था जई, खलिहान को ढकता था तिरपाल से | ||
और नहीं पीता था केवल सूखा जल | और नहीं पीता था केवल सूखा जल | ||
− | आने देता था सपनों में पहरेदारों की | + | आने देता था सपनों में पहरेदारों की कव्वों-जैसी पुतलियों को, |
भकोसता था निर्वासन की रोटी छोटा-सा टुकड़ा भी छोड़े बिना । | भकोसता था निर्वासन की रोटी छोटा-सा टुकड़ा भी छोड़े बिना । | ||
− | अपने कण्ठ से निकलने देता था हर तरह की | + | अपने कण्ठ से निकलने देता था हर तरह की ध्वनियों को |
सिवा रोने-धोने की आवाज़ के, | सिवा रोने-धोने की आवाज़ के, | ||
बोलना अब फुसफुसाने तक रह गया था । | बोलना अब फुसफुसाने तक रह गया था । | ||
अब मैं चालीस का हो गया हूँ | अब मैं चालीस का हो गया हूँ | ||
− | + | क्या कह सकता हूँ ज़िन्दगी के बारे में | |
जो इतनी लम्बी निकल आई । | जो इतनी लम्बी निकल आई । | ||
एकता का भाव अब महसूस होता है सिर्फ़ दुखों के साथ | एकता का भाव अब महसूस होता है सिर्फ़ दुखों के साथ | ||
पर अभी तक मिट्टी से बन्द नहीं किया गया है मेरा मुँह | पर अभी तक मिट्टी से बन्द नहीं किया गया है मेरा मुँह | ||
उसमें से निकलेंगे | उसमें से निकलेंगे | ||
− | + | शब्द केवल कृतज्ञता के । | |
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14:42, 18 सितम्बर 2023 के समय का अवतरण
जंगली जानवर के बदले
मैं घुस गया था पिंजरे में ।
गला डाली मैंने अपनी उम्र चीख़ते-चिल्लाते बैरक में ।
समुद्र के किनारे मैं खेलता रहा रूलैट
खाना खाता था मैं पता नहीं किसके साथ ।
हिमनद की ऊँचाई से मुझे दिखाई देती थी आधी दुनिया,
तीन बार मैं डूबा और एक बार पिटा ।
छोड़ा मैंने वह देश पाला-पोसा था जिसने मुझे
इतने लोग भूल चुके हैं अब मुझे
कि पूरा शहर भर सकता है उनसे ।
मैं स्तेपी के मैदानों में भटकता रहा जिनकी यादों में
ताज़ा थी चीख़ें,
पहनता था कपड़े जो फिर से आ जाते थे फ़ैशन में
बोता था जई, खलिहान को ढकता था तिरपाल से
और नहीं पीता था केवल सूखा जल
आने देता था सपनों में पहरेदारों की कव्वों-जैसी पुतलियों को,
भकोसता था निर्वासन की रोटी छोटा-सा टुकड़ा भी छोड़े बिना ।
अपने कण्ठ से निकलने देता था हर तरह की ध्वनियों को
सिवा रोने-धोने की आवाज़ के,
बोलना अब फुसफुसाने तक रह गया था ।
अब मैं चालीस का हो गया हूँ
क्या कह सकता हूँ ज़िन्दगी के बारे में
जो इतनी लम्बी निकल आई ।
एकता का भाव अब महसूस होता है सिर्फ़ दुखों के साथ
पर अभी तक मिट्टी से बन्द नहीं किया गया है मेरा मुँह
उसमें से निकलेंगे
शब्द केवल कृतज्ञता के ।