"अर म्हारौ गांव / नन्द भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर
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<Poem>हौळै-सै वौ गांव | <Poem>हौळै-सै वौ गांव |
20:39, 29 जनवरी 2015 के समय का अवतरण
हौळै-सै वौ गांव
गेलै रै पगां नीचे सूं सिरकतां ई
म्हारै नैड़ौ आयग्यौ,
जे इणनै म्हैं
फगत म्हारौ कैय दूं
तौ व्हे सकै
किणरै ई आंगै दोराई -
व्हे सकै कोई हाथ घाल लेवै गंडासी में,
जेई सूं उतार लेवै पाही
अर चेप लेवै आपरी बोदी बाड़ माथै,
सरू व्हे सकै हकनाक ई
अणफैम में फेर कोई नुंवी राड़।
रीस व्है टींकोळी माथै
अर जड़ां खोद लेवै नींव री -
हाल इत्ती सूझ
कै चुतराई नीं वापरी इण गांव में,
पण फेरूं ई
केई अणबूझ बातां जांणग्यौ औ गांव
आपूं-आप
मौकै अर मतळब रौ आंक पिछांणग्यौ!
इण सूझ चुतराई
अर हुंसियारी सारू आछौ लागै औ गांव
घणौ नैड़ौ,
पूरी अपणायत
इण गांव-गळी अर गुवाड़ साथै
जिणरै चौवटै अर घर-बाखळ री
निरमळ कंवळी रेत
घणी सुहावती लागै दूखती पगथळियां नै !
पाछी हर कियां
जांणै कीं नैड़ौ सिरक्यौ गांव
सिरक नै आयौ तागड़ी तांई
जठै हळवी-सी झांई देख
ढेरियै कर लीन्हौ रूसणौ
अणनूंत भौळौ नरसींग
ल्याळां न्हांखतौ
आंख्यां तांई सिरक नै आयौ नैड़ौ -
आंख्यां बिच्चै अटकाय लीवी
सगळी ‘हुंसियारी‘ अर बोल्यौ -
‘नंदिया थूं तौ सैरी व्हेग्यौ रे !’
अर साथै ई उछाळ थूक नै
काढ दीवी बत्तीसी बारै
अर खण-खण खिंडण लाग्यौ।
झूंपड़ै में बंतळ करती
नाई पूनम री बूढी मां
सुरड़ लीवी नासां में नासका
अर छींक आवतां ई
ऊकलगी म्हनै वा छींकणी,
कोई सूंघणी कैय देवौ -
(इतराज री कांई बात !)
स्वाद में कोनीं पड़ै फेर
फगत नांवां रौ हेर-फेर।
म्हारी तौ वा दादी है
जलम सूं ई
पण पंचायती अैलांण मुजब
जद वा ग्राम-काकी बणगी,
तौ कोई नीं जांण सक्यौ इणरौ
असली अरथ आखै गांव में -
अठै तांई के नीं जांण सकी
खुद दादी तकात....
व्हे सकै के राज री निजर में
औ अेक अणूंतौ सवाल व्है!
पण है ओजूं लग
आपरी ठौड़ कायम
कातरै में गड्योड़ै दातरै दांई
किणी संगत पड़ूतर री बाट
उडीकतौ,
पण किण कूंट सूं
कद तांई आवैला उथळौ,
कोई नै स्यात् ई व्है बेरौ !
इत्तौ फरक जरूर आयौ
के ल्हौड़ियै गांव रै आजकाल
मंूंछां आयगी है -
कढावणी री खुरचण
सगळां ई खावणी छोड दी,
तूटगी उण नींमड़ै री डाळ
जिणसूं झुरणी रमता हा
नैना हाथ
किलकारी भरता कित्ता ई कंठ,
आं ई बरसां में
छोडग्या इण गांव नै
जांणै क्यूं ?
आज उण नीमड़ै नै
नागौ-बूचौ देख
मन में भरीज जावै अेक सूनियाड़
नीं दीखै नैड़ौ-अळगौ
कोई आधार ,
स्यात् म्हारै मांय ई कोई खामी है
के औ गांव
ओजूं म्हारी ओळख रा अैनांण पूछै,
जद कद ई म्हारै बूतै
रूबरू होवूं -
धोरै माथै केई दफै
मिळ जावै वौ भौळौ जवान
जिणरौ अब कोई कोनी आगै-लारै
इण गांव में,
फेरूं ई जांणै क्यूं
धुरकारतौ रैवै वौ
आथूंण में अलोप व्हेतै सूरज नै
अर सूरज उणी ढाळ
बूढै तेलियै ऊंठ रै उनमांन
झुरकै-झुरकै चालतौ रैवै
आपरै मारग -
ऊतर जावै पाछौ उणीं
ढळांद में,
अरसै बाद
फेरूं अेकर बाखळ री धुंई में
चेतण लागी है आग
अर अगनी रै चिलकै में
झांकतौ आंख्यां सूं
गैरौ अपणायत रौ आभौ -
हीयै में आफळतौ उमाव -
चालण लागै
सुख-दुख री हाथ-हथाई
हलकै री बात
बात री विगत
विगत में पळोथण
कीं ताजा अर तीखा परसंगां रौ
बात रा मौजूदा हालात
अर बुनियाद -
इणी बंतळ बिचाळै
अलेखूं नुंवा सवाल
आपूं-आप पग सांभण लागै,
ढळ जावै आधी रात
आं जगबीती बातां री हाथ-हथायां में
जिकां रौ पूगतौ असर
म्हैं सांप्रत देखूं
म्हारा साईनां उणियारां माथै
सांप्रत।
डील रै मांवौ-मांय
पसवाड़ा फेरै
अेक सैंजोर नचीतौ गांव -
म्हैं अर म्हारौ गांव
अेक दूजै री हदां में पूग
परखण लाग्यां हा खुद रा जोड़
समझण लाग्यां हां पेरवां री
अरूप भासा,
सैळावण लाग्यां हां अेक-दूजै रा
कुळता अदीठ घाव
जिका म्हे अणूंती अेकलपै री घड़ियां में
न्यारा रैय खाया हा।
अगस्त, 1970