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"समझदारों का गीत / गोरख पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

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हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
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हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
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हम समझते हैं ख़ून का मतलब
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पैसे की कीमत हम समझते हैं
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क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
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हम इतना समझते हैं
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कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
  
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं<br>
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चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं<br>
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बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम समझते हैं ख़ून का मतलब<br>
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हम बोलने की आजादी का
पैसे की कीमत हम समझते हैं<br>
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मतलब समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं<br>
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टुटपुंजिया नौकरी के लिये
हम इतना समझते हैं<br>
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मगर हम क्या कर सकते हैं
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हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
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हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
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सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम बोलने की आजादी का<br>
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हम सरकार से दुखी रहते हैं
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कि समझती क्यों नहीं
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हम जनता से दुखी रहते हैं
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं<br>
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कि भेड़ियाधसान होती है।
मगर हम क्या कर सकते हैं<br>
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तेज़ दर से बढ़ रही है<br>
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ख़तरे समझते हैं<br>
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हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं<br>
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हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
सिर्फ़ कल्पना नहीं है<br>
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हम सरकार से दुखी रहते हैं<br>
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मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
कि समझती क्यों नहीं<br>
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हम जनता से दुखी रहते हैं<br>
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यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
कि भेड़ियाधसान होती है।<br><br>
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वैसे हम अपने को किसी से कम
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हम समझते हैं<br>
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सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है<br>
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हम चाय की प्यालियों में
हम समझते हैं<br>
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तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं<br>
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करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
हम समझते हैं<br>
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अगर सरकार कमज़ोर हो
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं<br>
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और जनता समझदार
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में<br>
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लेकिन हम समझते हैं
पेश करते हैं,हम समझते हैं<br>
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कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी<br>
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हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
समझते हैं।<br><br>
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वैसे हम अपने को किसी से कम<br>
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नहीं समझते हैं<br>
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हर स्याह को सफे़द और<br>
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सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं<br>
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हम चाय की प्यालियों में<br>
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तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं<br>
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करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं<br>
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अगर सरकार कमज़ोर हो<br>
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और जनता समझदार<br>
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लेकिन हम समझते हैं<br>
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कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं<br>
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हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं<br>
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यह भी हम समझते हैं।
 
यह भी हम समझते हैं।
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14:21, 29 जनवरी 2014 के समय का अवतरण

 
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।