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11:33, 25 मई 2008 के समय का अवतरण
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मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
बरसाती नालों की भाँति
किसी नदी में गिर कर
खो बैठें अपनी पहचान ।
मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसके धर्मग्रंथ
एक विशाल खेत को
बाँटते हैं टुकड़ों में
मखमली घास की हरियाली
आरक्षित करते हैं चोटी-टोपी के लिए
वर्जित करते हैं तीसरा नेत्र खोलना
मेरे जैसे लाखे रंग के लोगों के लिए ।
मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उन परिन्दों के नाम हों
जो गाँव की बस्तियों-मुहल्लों को पार कर
चुग्गा चुगने के लिए उतर आते हैं
इन-उन आँगनों में
घरों की ऊँची-नीची
छतों की परवाह किए बगैर ।
बस, मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसमें एकलव्य, बंदाबहादुर की वीर गाथाएँ हैं
पीर बुद्धूशाह का जूझना है,पाब्लो नेरूदा की वेदना है ।