भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"है मरना डूब के, मेरा मुकद्दर, भूल जाता हूँ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
है मरना डूब के, मेरा मुकद्दर, भूल जाता हूँ।
 
है मरना डूब के, मेरा मुकद्दर, भूल जाता हूँ।
तेरी आँखों में सागर है ये अकसर भूल जाता हूँ।
+
तेरी आँखों में सागर है ये अक्सर भूल जाता हूँ।
  
 
ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी नशीली है,
 
ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी नशीली है,
 
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ।
 
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ।
  
हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाकी है,
+
हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाक़ी है,
पहुँचकर घर के दरवाजे पे दफ़्तर भूल जाता हूँ।
+
पहुँचकर घर के दरवाज़े पे दफ़्तर भूल जाता हूँ।
  
 
तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना,
 
तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना,
 
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ।
 
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ।
  
न जीता हूँ न मरता हूँ तेरी आदत लगी ऐसी,  
+
न जीता हूँ, न मरता हूँ, तेरी आदत लगी ऐसी,
दवा हो ज़हर हो दोनों मैं लाकर भूल जाता हूँ।
+
दवा हो, ज़हर हो दोनों मैं लाकर भूल जाता हूँ।
 
</poem>
 
</poem>

17:09, 24 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण

है मरना डूब के, मेरा मुकद्दर, भूल जाता हूँ।
तेरी आँखों में सागर है ये अक्सर भूल जाता हूँ।

ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी नशीली है,
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ।

हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाक़ी है,
पहुँचकर घर के दरवाज़े पे दफ़्तर भूल जाता हूँ।

तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना,
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ।

न जीता हूँ, न मरता हूँ, तेरी आदत लगी ऐसी,
दवा हो, ज़हर हो दोनों मैं लाकर भूल जाता हूँ।