"कोमल / विष्णु खरे" के अवतरणों में अंतर
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22:14, 26 दिसम्बर 2007 के समय का अवतरण
किस स्थानीय मसखरे ने
उसे खुद को कोमल गाँडू कहना सिखा दिया था
यह एक रहस्य है
लेकिन अब उसे किसी और नाम से पुकारना अजीब लगता था
कई बार मुहल्ले की संभ्रान्त महिलाएँ भी
उस पर कोई फुटकर दया करते समय
उसे इसी नाम से अनायास पुकार देतीं
और फिर कई दिनों तक
अपनी जुबान दाँतों के नीचे रख आपस में खिसखिसाया करती थीं।
अपने विधुर पिता मुंशीजी और छोटे भाइयों के लिए
वह अनिर्वचनीय दैनंदिन लज्जा का कारण था--
अक्सर वे अपने काम से
घर पर ताला डालकर चल देते थे
और गलियों-बाजारों से वह लौटता, थका हुआ और खुश,
तो देर तक दरवाजे के पास बैठे रहने के बाद
जब भरे-पूरे शरीर की भूख उसके दिमाग तक पहुँचती
तो किसी भी घर के सामने
वह सपरिचय रोटी के लिए पुकारता
जो शीघ्र ही मिल जाती--उसे अपने प्रभाव का पता न था
किन्तु जवान होती लड़कियों के उस इलाके में
कौन अपने दरवाजे पर बार-बार वह बेलौस नाम सुनना चाहता।
जहाँ मरियल लड़कों और नुक्कड़-नौजवनों का मनोरंजन
उस मानव रीछ को नचाने-गवाने
और सारा वैविध्य समाप्त हो जाने के बाद रुलाने का था
(विचित्र आनंददायक भाँ-भाँ रुदन था उसका)
वहाँ वह नितांत मित्रहीन भी नहीं था। लोगों ने
उसे राममंदिर में हमेशा औंधे पड़े रहने वाले कबरबिज्जू से
और चुड़ैल समझी जानेवाली सत्तर वर्षीया भूतपूर्व दहीवाली से भी
लम्बी बातें करते हुए देखा था
जो दोनों के बीच रोमांस और शादी ( मजाक, भारतीय शैली)
की अफवाहों के बावजूद
उसे बेटा कहती थी।
अपनी किस्म के लोगों की तरह
अरसे तक गायब रहने की आदत
हमारे चरितनायक की भी थी लेकिन
अबकी बार जब वह लौटा
तो दरवाजे पर कई दिन बैठने के बाद भी ताला नहीं खुला
और लोगों ने भरसक उसे समझाया
कि मुंशीजी और उसके भाई मकान और शहर छोड़कर चले गए
लेकिन वह खुश होता हुआ उनकी तरफ देखता रहा
फिर कुछ दिनों तक लगातार
कबरबिज्जू तथा दहीवाली से गुप्त मंत्रणाएँ करता रहा
और इसके-उसके चबूतरे पर सोने की खुली कोशिशें।जब
मकान में वाकई असहिष्णु दूसरे रहनेवाले आ गए
तो वह अदृश्य हो गया।
यहाँ से तथ्यों का दामन छूटता है।
गृहस्थों की याददाश्त कमजोर होती है किन्तु कल्पनाशीलता तेज--
कबरबिज्जू और दहीवाली कहाँ चले गए
यह पूछें तो जानकारियों के अनेक संस्करण मिलेंगे।
और जिसके वे दोनों एकमात्र मित्र थे
वह कभी सिवनी, कभी नागपुर, कभी एक ही समय में
अलग-अलग तीरथों(और अगर हरनारायन वकील के लड़के
बैजनाथ पर विश्वास किया जाय तो बम्बई तक) में
देखा गया। जहाँ तक मुहल्ले के आम लोगों का सवाल है
उनमें काली माई की इष्टवाली जमनाबाई का सपना ही
ज्यादा स्वीकृत हुआ है
जिसमें दिखा था कि कबरबिज्जू ने, जो असल में
एक मालगुजार था जिसपर सराप था,
वापस गाँव जाके जमीन-जायदाद थी सो गरीबों में बाँट दी
और साधू हो गया
दहीवाली बुढ़िया जो बिना बताए बरसों से बरत रखती थी
मैया की सिद्धी पाके सीधी सुरग चली गई
और गेरुआ अँगरखा पहने लाल-लाल आँखों वाला एक जोगी
जो आके ग्यान और करम की बातें कह रहा था
वह अपना कोमल गाँडू था।