"अग्रज कवि / विजय कुमार" के अवतरणों में अंतर
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− | वे अगले | + | वे अगले पचास बरस तक मेरे सपनों में आते रहे |
वे मरे नहीं थे जैसा कि लोग समझते थे | वे मरे नहीं थे जैसा कि लोग समझते थे | ||
− | अलबत्ता वे अब भी अपनी | + | अलबत्ता वे अब भी अपनी कविताएँ लिख रहे थे |
यह सब मैंने सपने में देखा | यह सब मैंने सपने में देखा | ||
− | फिर मैं | + | फिर मैं नीन्द से जागा और कुछ समझ नहीं पाया |
− | अब क्या | + | अब क्या बताऊँ वे क्या लिखते रहे थे, क्या छूट गया पीछे |
एक बुजुर्ग कवि का ऋण जैसे कि सारी कायनात का ऋण | एक बुजुर्ग कवि का ऋण जैसे कि सारी कायनात का ऋण | ||
तो शायद मुझे ही अब उन अधूरी कविताओं को पूरा करना होगा | तो शायद मुझे ही अब उन अधूरी कविताओं को पूरा करना होगा | ||
− | मुझे चुरा लेनी होंगी अग्रज कवि की | + | मुझे चुरा लेनी होंगी अग्रज कवि की भेदभरी पंक्तियाँ |
− | जैसे कि आप उठा लेते हैं | + | जैसे कि आप उठा लेते हैं पंक्तियाँ |
− | + | चाँद से, आकाश से, या दरख्तों से | |
और वे कुछ नहीं कहते | और वे कुछ नहीं कहते | ||
− | शायद | + | शायद मुझे ही ढूँढ़नी होंगी तमाम शोरगुल के बीच |
− | उनकी | + | उनकी ख़ामोशियाँ |
− | और तमाम चुप्पियों के बीच | + | और तमाम चुप्पियों के बीच |
− | उनकी कोई अनसुनी | + | उनकी कोई अनसुनी चीख़? |
− | वे तो चले उन रास्तों पर | + | वे तो चले उन रास्तों पर |
− | + | जहाँ सन्देह थे केवल सन्देह और सवाल | |
और आश्वासन कोई नहीं | और आश्वासन कोई नहीं | ||
− | और वे जानते थे कि | + | और वे जानते थे कि सच कहने से ज़्यादा ज़रूरी है |
− | सच कहने की ज़रूरत का एहसास | + | सच कहने की ज़रूरत का एहसास? |
− | + | मैं नींद से हड़बडा कर जागूँगा | |
− | इस तरह तीस बरस बाद रात दो बजे | + | इस तरह तीस बरस बाद रात दो बजे |
− | मैं एक गहरी निद्रा से | + | मैं एक गहरी निद्रा से जागूँगा |
− | मैं चारपाई,बिस्तर,कोठरी,कुर्सियों,बरतन - | + | मैं चारपाई, बिस्तर, कोठरी, कुर्सियों, बरतन-भाण्डों, |
− | + | बाड़ों, बरामदों, मान-अपमान, सुख-दुख, स्वार्थ, तारीखों | |
− | और मंसूबों और व्याकरण से बाहर | + | और मंसूबों और व्याकरण से बाहर निकलूँगा |
− | रात दो बजे गझिन | + | रात दो बजे गझिन अन्धकार में |
− | मैं अपने अग्रज कवि के रास्तों पर टटोलते हुए कुछ | + | मैं अपने अग्रज कवि के रास्तों पर टटोलते हुए कुछ क़दम बढ़ाऊँगा |
+ | लेकिन फिर घबरा कर जल्दी से अपने अहाते में लौट आऊँगा | ||
+ | भारी-भारी साँसों के साथ | ||
+ | इस तरह | ||
+ | इस तरह याद करता हूँ मैं आधी सदी पहले गुज़रे | ||
+ | एक दिवंगत कवि को | ||
+ | उनकी कुछ अधूरी रह गई कविताओं को | ||
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19:59, 29 अक्टूबर 2018 के समय का अवतरण
वे अगले पचास बरस तक मेरे सपनों में आते रहे
वे मरे नहीं थे जैसा कि लोग समझते थे
अलबत्ता वे अब भी अपनी कविताएँ लिख रहे थे
यह सब मैंने सपने में देखा
फिर मैं नीन्द से जागा और कुछ समझ नहीं पाया
अब क्या बताऊँ वे क्या लिखते रहे थे, क्या छूट गया पीछे
एक बुजुर्ग कवि का ऋण जैसे कि सारी कायनात का ऋण
तो शायद मुझे ही अब उन अधूरी कविताओं को पूरा करना होगा
मुझे चुरा लेनी होंगी अग्रज कवि की भेदभरी पंक्तियाँ
जैसे कि आप उठा लेते हैं पंक्तियाँ
चाँद से, आकाश से, या दरख्तों से
और वे कुछ नहीं कहते
शायद मुझे ही ढूँढ़नी होंगी तमाम शोरगुल के बीच
उनकी ख़ामोशियाँ
और तमाम चुप्पियों के बीच
उनकी कोई अनसुनी चीख़?
वे तो चले उन रास्तों पर
जहाँ सन्देह थे केवल सन्देह और सवाल
और आश्वासन कोई नहीं
और वे जानते थे कि सच कहने से ज़्यादा ज़रूरी है
सच कहने की ज़रूरत का एहसास?
मैं नींद से हड़बडा कर जागूँगा
इस तरह तीस बरस बाद रात दो बजे
मैं एक गहरी निद्रा से जागूँगा
मैं चारपाई, बिस्तर, कोठरी, कुर्सियों, बरतन-भाण्डों,
बाड़ों, बरामदों, मान-अपमान, सुख-दुख, स्वार्थ, तारीखों
और मंसूबों और व्याकरण से बाहर निकलूँगा
रात दो बजे गझिन अन्धकार में
मैं अपने अग्रज कवि के रास्तों पर टटोलते हुए कुछ क़दम बढ़ाऊँगा
लेकिन फिर घबरा कर जल्दी से अपने अहाते में लौट आऊँगा
भारी-भारी साँसों के साथ
इस तरह
इस तरह याद करता हूँ मैं आधी सदी पहले गुज़रे
एक दिवंगत कवि को
उनकी कुछ अधूरी रह गई कविताओं को
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