"पक्षधर / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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स्वयं अपनी नियति बन | स्वयं अपनी नियति बन | ||
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पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से | पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से | ||
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अनुक्षण अपने को परिक्रान्त करते हुए | अनुक्षण अपने को परिक्रान्त करते हुए | ||
− | अपनी नयी नियति बनते | + | अपनी नयी नियति बनते चलें। |
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हमें लड़ना है निरन्तर, | हमें लड़ना है निरन्तर, | ||
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− | पर सर्वदा जीवन के लिए : | + | पर सर्वदा जीवन के लिए: |
अपनी हर साँस के साथ | अपनी हर साँस के साथ | ||
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− | अपनी पहली साँस और | + | अपनी पहली साँस और चीख़ के साथ |
हम जिस जीवन के | हम जिस जीवन के | ||
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आज होकर सयाने | आज होकर सयाने | ||
− | उसे हम वरते हैं : | + | उसे हम वरते हैं: |
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इतने घने | इतने घने | ||
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कि उसी जीने और जिलाने के लिए | कि उसी जीने और जिलाने के लिए | ||
− | स्वेच्छा से मरते हैं ! | + | स्वेच्छा से मरते हैं! |
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+ | <span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५</span> |
17:44, 30 मार्च 2008 का अवतरण
इनसान है कि जनमता है
और विरोध के वातावरण में आ गिरता है:
उस की पहली साँस संघर्ष का पैंतरा है
उस की पहली चीख़ एक युद्ध का नारा है
जिसे यह जीवन-भर लड़ेगा।
हमारा जन्म लेना ही पक्षधर बनना है,
जीना ही क्रमशः यह जानना है
कि युद्ध ठनना है
और अपनी पक्षधरता में
हमें पग-पग पर पहचानना है
कि अब से हमें हर क्षण में, हर वार में, हर क्षति में,
हर दुःख-दर्द, जय-पराजय, गति-प्रतिगति में
स्वयं अपनी नियति बन
अपने को जनना है।
ईश्वर
एक बार का कल्पक
और सनातन क्रान्ता है:
माँ—एक बार की जननी
और आजीवन ममता है:
पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से
हम में यह क्षमता है
कि अपनी व्यथा और अपने संघर्ष में
अपने को अनुक्षण जनते चलें,
अपने संसार को अनुक्षण बदलते चलें,
अनुक्षण अपने को परिक्रान्त करते हुए
अपनी नयी नियति बनते चलें।
पक्षधर और चिरन्तन,
हमें लड़ना है निरन्तर,
आमरण अविराम—
पर सर्वदा जीवन के लिए:
अपनी हर साँस के साथ
पनपते इस विश्वास के साथ
कि हर दूसरे की हर साँस को
हम दिला सकेंगे और अधिक सहजता,
अनाकुल उन्मुक्ति, और गहरा उल्लास
अपनी पहली साँस और चीख़ के साथ
हम जिस जीवन के
पक्षधर बने अनजाने ही,
आज होकर सयाने
उसे हम वरते हैं:
उस के पक्षधर हैं हम—
इतने घने
कि उसी जीने और जिलाने के लिए
स्वेच्छा से मरते हैं!
सितम्बर १९६५