"हनुमानबाहुक / भाग 6 / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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− | भालकी कि कालकीकि रोषकी त्रिदोषकी है, | + | '''भालकी कि कालकीकि रोषकी त्रिदोषकी है,''' |
− | + | '''बेदन बिषम पाप-ताप छलछाँहकी।''' | |
− | करमन कूटकी कि जंत्रमंत्र बूटकी, | + | '''करमन कूटकी कि जंत्रमंत्र बूटकी,''' |
− | + | '''पराहि जाहि पापिनी मलीन मनमाँहकी॥''' | |
− | पेहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, | + | '''पेहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि,''' |
− | बावरी न होहि बानि जानि कपिनाँहकी। | + | '''बावरी न होहि बानि जानि कपिनाँहकी।''' |
− | + | '''आन हनुमानकी दोहाई बलवानकी,''' | |
− | सपथ महाबीरकी जो रहै पीर | + | '''सपथ महाबीरकी जो रहै पीर बाँहकी॥26॥''' |
− | भावार्थ - यह कठिन पीड़ा कपालकी लिखावट है या समय, क्रोध अथवा त्रिदोषका या मेरे भयंकर पापोंका परिणाम है, दुःख किंवा धोखेकी छाया है। मारणादि प्रयोग अथवा यन्त्र-मन्त्ररूपी वृक्षका फल है, अरी मनकी मैली पापिनी पूतना ! भाग जा, नहीं तो मैं डंका पीटकर कहे देता हूँ कि कपिराजका स्वभाव जानकर तू पगली न बने। जो बाहुकी पीडा रहे तो मैं महावीर बलवान् हनुमानजीकी दोहाई और सौगंध करता हूँ अर्थात् अब वह नहीं रह | + | '''भावार्थ''' - यह कठिन पीड़ा कपालकी लिखावट है या समय, क्रोध अथवा त्रिदोषका या मेरे भयंकर पापोंका परिणाम है, दुःख किंवा धोखेकी छाया है। मारणादि प्रयोग अथवा यन्त्र-मन्त्ररूपी वृक्षका फल है, अरी मनकी मैली पापिनी पूतना ! भाग जा, नहीं तो मैं डंका पीटकर कहे देता हूँ कि कपिराजका स्वभाव जानकर तू पगली न बने। जो बाहुकी पीडा रहे तो मैं महावीर बलवान् हनुमानजीकी दोहाई और सौगंध करता हूँ अर्थात् अब वह नहीं रह सकती॥26॥ |
− | सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल, | + | '''सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल,''' |
− | + | '''लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है।''' | |
− | लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार, | + | '''लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार,''' |
− | + | '''जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है॥''' | |
− | तोरि जमकातरि मदोदरी कदोरि आनी, | + | '''तोरि जमकातरि मदोदरी कदोरि आनी,''' |
− | + | '''रावनकी रानी मेघनाद महँतारी है।''' | |
− | भीर बाँहपीरकी निपट राखी महाबीर, | + | '''भीर बाँहपीरकी निपट राखी महाबीर,''' |
− | + | '''कौनके सकोच तुलसीके सोच भारी है॥27॥''' | |
− | भावार्थ - सिंहिकाके बलका संहार करके सुरसाके छलको सुधारकर लंकिनीको मार गिराया औ अशोकवाटिका को उजाड़ डाला। लंकापुरीको अच्छी तरहसे जलाकर मकरी को विदीर्ण करके बारंबार राक्षसोंकी सेना का विनाश किया। यमराजका खड्ग अर्थात् परदा फाड़कर मेघनादकी माता और रावणकी पटरानी मन्दोदरीको राजमहलसे बाहर निकाल लाये। हे महाबली कपिराज ! तुलसीको बड़ा सोच है, किसके संकोचमें पड़कर आपने केवल मेरे बाहुकी पीडा के भयको छोड़ रक्खा है॥ 27॥ | + | '''भावार्थ''' - सिंहिकाके बलका संहार करके सुरसाके छलको सुधारकर लंकिनीको मार गिराया औ अशोकवाटिका को उजाड़ डाला। लंकापुरीको अच्छी तरहसे जलाकर मकरी को विदीर्ण करके बारंबार राक्षसोंकी सेना का विनाश किया। यमराजका खड्ग अर्थात् परदा फाड़कर मेघनादकी माता और रावणकी पटरानी मन्दोदरीको राजमहलसे बाहर निकाल लाये। हे महाबली कपिराज ! तुलसीको बड़ा सोच है, किसके संकोचमें पड़कर आपने केवल मेरे बाहुकी पीडा के भयको छोड़ रक्खा है॥ 27॥ |
− | तेरो बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर, | + | '''तेरो बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर,''' |
− | + | '''भूलत सरीरसुधि सक्र-रबि-राहुकी।''' | |
− | तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, | + | '''तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, ''' |
− | + | '''तेरो नाम लेत रहै आरति न काहुकी॥''' | |
− | साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि, | + | '''साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि,''' |
− | + | '''हाथ कपिनाथहीके चोटी चोर साहुकी।''' | |
− | आलस अनख परिहासकै सिखावन है, | + | '''आलस अनख परिहासकै सिखावन है,''' |
− | + | '''एते दिन रही पीर तुलसीके बहुकी॥28॥''' | |
− | भावार्थ - हे वीर ! आपके लड़पनका खेल सुनकर धीरजवान् भी भयभीत हो जाते है और इन्द्र, सूर्य तथा राहुको अपने शरीर-की सुध भुला जाती है आपके बाहुबलसे सब लोकपाल शोक -रहित होकर बसते है और आपका नाम लेनेसे किसीका दुःख नही रह जाता । साम, दान और भेद-नीतिका विधान तथा वेद-लबेदसे भी सिद्ध है कि चोर-साहुकी चोटी कपिनाथके ही हाथमें रहती है। तुलसीदसके जो इतने दिन बाहुकी पीड़ा रही है सो क्या आपका आलस्य है ? अथवा क्रोध, परिहास या शिक्षा | + | '''भावार्थ''' - हे वीर ! आपके लड़पनका खेल सुनकर धीरजवान् भी भयभीत हो जाते है और इन्द्र, सूर्य तथा राहुको अपने शरीर-की सुध भुला जाती है आपके बाहुबलसे सब लोकपाल शोक -रहित होकर बसते है और आपका नाम लेनेसे किसीका दुःख नही रह जाता । साम, दान और भेद-नीतिका विधान तथा वेद-लबेदसे भी सिद्ध है कि चोर-साहुकी चोटी कपिनाथके ही हाथमें रहती है। तुलसीदसके जो इतने दिन बाहुकी पीड़ा रही है सो क्या आपका आलस्य है ? अथवा क्रोध, परिहास या शिक्षा है॥28॥ |
− | बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है। | + | '''बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।''' |
− | कीन्ही है सँभार सार अंजनीकुमार बीर, | + | '''कीन्ही है सँभार सार अंजनीकुमार बीर,''' |
− | आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है॥ | + | '''आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है॥''' |
− | इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु, | + | '''इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु,''' |
− | कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है। | + | '''कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है।''' |
− | सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, | + | '''सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास,''' |
− | चोरीको मरन खेल बालकनिको सो | + | '''चोरीको मरन खेल बालकनिको सो है॥29॥''' |
− | भावार्थ - हे गरीबोंके पालन करनेवाले कृपानिधान ! टुकड़ेके लिये दरिद्रतावश घर-घर मैं डोलता फिरता था, आपने बुलाकर बालकके समान मेरा पालन-पोषण किया है। हे वीर अंजनीकुमार ! मुख्यतः आपने ही मेरी रक्षा की है, अपने जनको आप न भुलायेंगे इसका मुझे भी भरोसा है। हे कपिराज ! आज आप सब प्रकार समर्थ हैं, मैं सच कहता हूँ, आपके समान भला तीनों लोकोंमें कोन है ? किंतु मुझे इतना परेखा (पछतावा) है कि य ह सेवक दुर्दशा सह रह है, लड़कोंका खेलवाड़ होनेके समान चिड़ियाकी मृत्यु हो रही है और आप तमाशा देखते है॥ 29॥ | + | '''भावार्थ''' - हे गरीबोंके पालन करनेवाले कृपानिधान ! टुकड़ेके लिये दरिद्रतावश घर-घर मैं डोलता फिरता था, आपने बुलाकर बालकके समान मेरा पालन-पोषण किया है। हे वीर अंजनीकुमार ! मुख्यतः आपने ही मेरी रक्षा की है, अपने जनको आप न भुलायेंगे इसका मुझे भी भरोसा है। हे कपिराज ! आज आप सब प्रकार समर्थ हैं, मैं सच कहता हूँ, आपके समान भला तीनों लोकोंमें कोन है ? किंतु मुझे इतना परेखा (पछतावा) है कि य ह सेवक दुर्दशा सह रह है, लड़कोंका खेलवाड़ होनेके समान चिड़ियाकी मृत्यु हो रही है और आप तमाशा देखते है॥ 29॥ |
− | + | '''आपने ही पापतें त्रितापतें कि सापतें,''' | |
− | + | '''बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है।''' | |
− | + | '''औषध अनेक जंत्र-मंत्र-टोटकादि किये,''' | |
− | + | '''बादि भये देवता मनाये अधिकाति है॥''' | |
− | + | '''करतार, भरतार, हरतार, कर्म, काल,''' | |
− | + | '''को है जगजाल जो न मानत इताति है।''' | |
− | + | '''चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो रामदूत,''' | |
− | + | '''ढील तेरी बीर मोहि पीरतें पिराति है॥30॥''' | |
− | भावार्थ - मेरे ही पाप वा तीनों ताप अथवा शापसे बाहुकी पीड़ा बढ़ी है वह न कही जाती और न सही जाती है। अनेक ओषधि, यन्त्र-मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ, पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और संसारका समूह-जाल कौन एैसा है जो आपकी आज्ञाको न मनता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है और आपने इसको अपना सेवक कहा है। हे वीर ! आपकी यह ढील मुझे इस पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही | + | '''भावार्थ''' - मेरे ही पाप वा तीनों ताप अथवा शापसे बाहुकी पीड़ा बढ़ी है वह न कही जाती और न सही जाती है। अनेक ओषधि, यन्त्र-मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ, पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और संसारका समूह-जाल कौन एैसा है जो आपकी आज्ञाको न मनता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है और आपने इसको अपना सेवक कहा है। हे वीर ! आपकी यह ढील मुझे इस पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही है॥30॥ |
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16:16, 15 मई 2015 के समय का अवतरण
भालकी कि कालकीकि रोषकी त्रिदोषकी है,
बेदन बिषम पाप-ताप छलछाँहकी।
करमन कूटकी कि जंत्रमंत्र बूटकी,
पराहि जाहि पापिनी मलीन मनमाँहकी॥
पेहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि,
बावरी न होहि बानि जानि कपिनाँहकी।
आन हनुमानकी दोहाई बलवानकी,
सपथ महाबीरकी जो रहै पीर बाँहकी॥26॥
भावार्थ - यह कठिन पीड़ा कपालकी लिखावट है या समय, क्रोध अथवा त्रिदोषका या मेरे भयंकर पापोंका परिणाम है, दुःख किंवा धोखेकी छाया है। मारणादि प्रयोग अथवा यन्त्र-मन्त्ररूपी वृक्षका फल है, अरी मनकी मैली पापिनी पूतना ! भाग जा, नहीं तो मैं डंका पीटकर कहे देता हूँ कि कपिराजका स्वभाव जानकर तू पगली न बने। जो बाहुकी पीडा रहे तो मैं महावीर बलवान् हनुमानजीकी दोहाई और सौगंध करता हूँ अर्थात् अब वह नहीं रह सकती॥26॥
सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल,
लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है।
लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार,
जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है॥
तोरि जमकातरि मदोदरी कदोरि आनी,
रावनकी रानी मेघनाद महँतारी है।
भीर बाँहपीरकी निपट राखी महाबीर,
कौनके सकोच तुलसीके सोच भारी है॥27॥
भावार्थ - सिंहिकाके बलका संहार करके सुरसाके छलको सुधारकर लंकिनीको मार गिराया औ अशोकवाटिका को उजाड़ डाला। लंकापुरीको अच्छी तरहसे जलाकर मकरी को विदीर्ण करके बारंबार राक्षसोंकी सेना का विनाश किया। यमराजका खड्ग अर्थात् परदा फाड़कर मेघनादकी माता और रावणकी पटरानी मन्दोदरीको राजमहलसे बाहर निकाल लाये। हे महाबली कपिराज ! तुलसीको बड़ा सोच है, किसके संकोचमें पड़कर आपने केवल मेरे बाहुकी पीडा के भयको छोड़ रक्खा है॥ 27॥
तेरो बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर,
भूलत सरीरसुधि सक्र-रबि-राहुकी।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब,
तेरो नाम लेत रहै आरति न काहुकी॥
साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि,
हाथ कपिनाथहीके चोटी चोर साहुकी।
आलस अनख परिहासकै सिखावन है,
एते दिन रही पीर तुलसीके बहुकी॥28॥
भावार्थ - हे वीर ! आपके लड़पनका खेल सुनकर धीरजवान् भी भयभीत हो जाते है और इन्द्र, सूर्य तथा राहुको अपने शरीर-की सुध भुला जाती है आपके बाहुबलसे सब लोकपाल शोक -रहित होकर बसते है और आपका नाम लेनेसे किसीका दुःख नही रह जाता । साम, दान और भेद-नीतिका विधान तथा वेद-लबेदसे भी सिद्ध है कि चोर-साहुकी चोटी कपिनाथके ही हाथमें रहती है। तुलसीदसके जो इतने दिन बाहुकी पीड़ा रही है सो क्या आपका आलस्य है ? अथवा क्रोध, परिहास या शिक्षा है॥28॥
बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।
कीन्ही है सँभार सार अंजनीकुमार बीर,
आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है॥
इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु,
कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास,
चोरीको मरन खेल बालकनिको सो है॥29॥
भावार्थ - हे गरीबोंके पालन करनेवाले कृपानिधान ! टुकड़ेके लिये दरिद्रतावश घर-घर मैं डोलता फिरता था, आपने बुलाकर बालकके समान मेरा पालन-पोषण किया है। हे वीर अंजनीकुमार ! मुख्यतः आपने ही मेरी रक्षा की है, अपने जनको आप न भुलायेंगे इसका मुझे भी भरोसा है। हे कपिराज ! आज आप सब प्रकार समर्थ हैं, मैं सच कहता हूँ, आपके समान भला तीनों लोकोंमें कोन है ? किंतु मुझे इतना परेखा (पछतावा) है कि य ह सेवक दुर्दशा सह रह है, लड़कोंका खेलवाड़ होनेके समान चिड़ियाकी मृत्यु हो रही है और आप तमाशा देखते है॥ 29॥
आपने ही पापतें त्रितापतें कि सापतें,
बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है।
औषध अनेक जंत्र-मंत्र-टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अधिकाति है॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म, काल,
को है जगजाल जो न मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो रामदूत,
ढील तेरी बीर मोहि पीरतें पिराति है॥30॥
भावार्थ - मेरे ही पाप वा तीनों ताप अथवा शापसे बाहुकी पीड़ा बढ़ी है वह न कही जाती और न सही जाती है। अनेक ओषधि, यन्त्र-मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ, पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और संसारका समूह-जाल कौन एैसा है जो आपकी आज्ञाको न मनता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है और आपने इसको अपना सेवक कहा है। हे वीर ! आपकी यह ढील मुझे इस पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही है॥30॥