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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
|संग्रह=
}}
{{KKCatNazm}}
<poem>
दश्त-ए-तन्हाई<ref>वीरान जंगल में</ref> में ऐ जान-ए-जहाँ<ref>विश्वप्रिया</ref> लरज़ा<ref>कम्पित हो रहे हैं</ref> हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब<ref>मरीचिका</ref>
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले<ref>घास और मिट्टी के कणों के नीचे</ref>
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन<ref>चमेली</ref> और गुलाब
उठ रही है कहीं क़ुर्बत<ref>समीप</ref> से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम-मद्धम
दूर् उफ़क़<ref>आकाश</ref> पर चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम<ref>ओस</ref>
दश्त-ए-तन्हाई में उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ा हैंरक्खा हैदिल के रुख़सार<brref>गाल</ref> पे इस वक़्त तेरी याद् ने हाथतेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराबयूँ गुमाँ<brref>दश्तशक</ref> होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले<br>फ़िराक़ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब<br><br/poem>
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तेरी साँस की आँच<br>अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम मद्धम<br>दूर् उफ़क़ पर् चमकती हुई क़तरा क़तरा<br>गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम<br><br> उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है<br>दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद् ने हाथ<br>यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़<br>ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात <br><br>{{KKMeaning}}
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