भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मैंने कहा / रामनरेश पाठक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=रामनरेश पाठक | |रचनाकार=रामनरेश पाठक | ||
|अनुवादक= | |अनुवादक= | ||
− | |संग्रह= | + | |संग्रह=अपूर्वा / रामनरेश पाठक |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
13:48, 4 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
मैंने फागुन की हवा से कहा-
'वंशी, मेरा कोई अपना नहीं,'
'क्या? टूटा तुम्हारा कोई सपना कहीं,'
'नहीं, बंधा मेरे हाथ कोई कंगना नहीं.'
मैंने हरसिंगार के फूलों से कहा-
'गीत, मेरा कोई अपना नहीं.'
'क्या? भुला तेरे मन का हिरना कहीं.'
'नहीं, गंध परी आई कभी अंगना नहीं.'
मैंने डूबती हुई सूनी बदली से कहा-
'विराम मेरा कोई अपना नहीं.'
'क्या? डूबा तेरे नभ का वो चंदा कहीं.'
'नहीं, उगा मेरे नभ में कोई चंदा नहीं.'