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"पायताने बैठ कर ८ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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14:47, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

चल सखी चूडिय़ां बांट लें
मिला ले तेरी हरी में मेरी लाल
बीच में लगा कर देख ये बैंगनी-सफेद
कुछ नई में पुरानी मिला कर पहनते हैं
अब जो आये हैं नैहर चल खूब खनकते हैं

चल खाते हैं बासी रोटी
दाल में मिलाते हैं मिर्च का अचार
सिलबट्टे पर धनिया की चटनी पीसते हैं
बाजरे की रोटी में गुड़ मीसते हैं
लगाते हैं अम्मा को मेहंदी
बाबू का भारी वाला जैकेट मुस्कराते से फिचते हैं
कर देते हैं साफ भाई का कमरा
चढ़ आते हैं ऊंची अटारी
उलटी पैर की भूतनी से डर कर चिपट जाते हैं
अब जो आये हैं नैहर
चल खेत में पानी सा उतर जाते हैं

भरते हैं भौजी के सि‹होरा में पीला सिंदूर
रात की बात कर साथ खिलखिलाते हैं
भतीजी के लिए बना देते हैं कपड़े की गुडिय़ा
उसको नथिया और हसली पहनाते हैं
उसकी आंख में भरते हैं काला सा काजल
कान में झुमका लटकाते हैं
अब जो आये हैं नैहर...अम्मा की गुडिय़ा बन जाते हैं

चल सखी रात बांट लें
मन की बात बांट लें
आंख में सूख रही सदियों से नदी
होंठों को सिल लेते हैं
कल जाना है ससुराल
आ गले मिल लेते हैं
अम्मा को नहीं बताएंगे
भाई से छुपा ले जायेंगे
भौजी जान भी नहीं पाएगी

खूंटे से बंधी गाय सब समझ जाएगी
दरवाजे से निकलते हमसे उलझ जाएगी
चाटेगी हथेली के छाले
हमारी रीढ़ में एक रात कांप जायेगी
हमारी छाती में सूखी कहानी हरी हो जाएगी
चिरई चोंच का दाना छोड़ जायेगी

चल चुपचाप रो लें
मांग भर सिंदूर, हाथ भर चूड़ी, बाल में गजरा सजायेंगे
मन की गांठ साथ लिए जायेंगे
हम बड़का ƒघर की Žब्याहता हैं अब
नैहर को अपने चुप से ठग जायेंगे

पर गाय से नजर नहीं मिलायेंगे
चल ना चूडिय़ों में मिलाते हैं कुछ नई कुछ पुरानी
आटे में खूब सारा पानी...खिलखिलाते हैं
अब जो आये हैं नैहर
चल खनकते हैं...
फिर...चुपके से टूट जाते हैं।