"गृहस्थ / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय }} कि ...) |
|||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
यह मैं उस घर में रहते-रहते <br> | यह मैं उस घर में रहते-रहते <br> | ||
बार-बार भूल जाता हूँ <br> | बार-बार भूल जाता हूँ <br> | ||
− | + | या यों कहूँ कि याद ही कभी-कभी करता हूँ: <br> | |
(जैसे कि यह <br> | (जैसे कि यह <br> | ||
कि मैं साँस लेता हूँ:) <br> | कि मैं साँस लेता हूँ:) <br> | ||
− | + | पर यह <br> | |
कि तुम उस मेरे घर की <br> | कि तुम उस मेरे घर की <br> | ||
एक मात्र खिड़की हो <br> | एक मात्र खिड़की हो <br> |
12:46, 16 फ़रवरी 2008 का अवतरण
कि तुम
मेरा घर हो
यह मैं उस घर में रहते-रहते
बार-बार भूल जाता हूँ
या यों कहूँ कि याद ही कभी-कभी करता हूँ:
(जैसे कि यह
कि मैं साँस लेता हूँ:)
पर यह
कि तुम उस मेरे घर की
एक मात्र खिड़की हो
जिस में से मैं दुनिया को, जीवन को,
- प्रकाश को देखता हूँ, पहचानता हूँ,
- प्रकाश को देखता हूँ, पहचानता हूँ,
--जिस में से मैं रूप, सुर, बास, रस
- पाता और पीता हूँ--
- पाता और पीता हूँ--
जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ,
--जिस में से ही
मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ
--जिस में से उलीच कर मैं
अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूँ--
यह मैं कभी नहीं भूलता:
क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर
मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ--
कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ--
और तुम--तुम्हीं मेरा वह मेरा समर्थ हाथ हो
तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने
मेरे साथ हो।