"वो दिन / मनोज चौहान" के अवतरणों में अंतर
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− | मगर | + | आयोजित कर सभाएं, बैठकें |
− | + | शामिल होना रैलियों में भी | |
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− | + | ताकि बदला जा सके समाज | |
− | + | और उसकी सोच को l | |
+ | मेरे दोस्त आज भी | ||
+ | वही पुराने चेहरे हैं | ||
+ | मगर बक्त के रेले में | ||
+ | छिटक गए हैं हम सब | ||
+ | अपने - 2 कर्मपथ पर l | ||
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+ | बेशक आ गया होगा फर्क | ||
+ | चाहे मामूली सा ही सही | ||
+ | हम सब के नजरिये | ||
+ | और सोचने के तरीकों में | ||
+ | झुलसकर निज अनुभवों की | ||
+ | भठ्ठी की ऊष्मा से l | ||
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+ | मगर वो मौलिक सोच यक़ीनन | ||
+ | आज भी जिन्दा है | ||
+ | कहीं ना कहीं | ||
+ | जो कर देती है उद्विगन | ||
+ | दिलो – दिमाग को | ||
+ | और सुलगा जाती है अंगारे | ||
+ | बदलाब और क्रांति के लिए l | ||
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17:08, 1 मार्च 2016 का अवतरण
{{KKRachna | रचनाकार=
जीवन की आपाधापी से
लेकर कुछ बक्त उधार
लौटता हूँ जब
गाँव के गलियारों में
तो चाहता हूँ जी लेना
फिर से
वही पुराने दिन
मगर घेर लेती हैं मुझे वहां भी
कुछ नयी व्यस्ततायें
और जिम्मेदारियां l
बचपन के उन लंगोटिए दोस्तों से
मिल पाता हूँ सिर्फ
कुछ ही पल के लिए
वह भी तो होते हैं व्यस्त आखिर
अपनी - 2 जिम्मेदारियों
के निर्वहन में
इसीलिए नहीं करता शिकायत
किसी से भी l
सोचता हूँ कि सच में
कितने बेहतर थे वो दिन
बचपन से लेकर लड़कपन तक के
बेफिक्री के आलम में
निकल जाना घर से
और फिर लौट आना वैसे ही
हरफनमौलाओं की तरह
बेपरवाह l
जवानी की दहलीज पर
कदम रखते ही
हावी हो जाना उस जूनून का
करना घंटों तक बातें
आदर्शवाद और क्रान्ति की l
आयोजित कर सभाएं, बैठकें
शामिल होना रैलियों में भी
बनाना योजनाएं
अर्धरात्रि तक जागकर
ताकि बदला जा सके समाज
और उसकी सोच को l
मेरे दोस्त आज भी
वही पुराने चेहरे हैं
मगर बक्त के रेले में
छिटक गए हैं हम सब
अपने - 2 कर्मपथ पर l
बेशक आ गया होगा फर्क
चाहे मामूली सा ही सही
हम सब के नजरिये
और सोचने के तरीकों में
झुलसकर निज अनुभवों की
भठ्ठी की ऊष्मा से l
मगर वो मौलिक सोच यक़ीनन
आज भी जिन्दा है
कहीं ना कहीं
जो कर देती है उद्विगन
दिलो – दिमाग को
और सुलगा जाती है अंगारे
बदलाब और क्रांति के लिए l