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"वो दिन / मनोज चौहान" के अवतरणों में अंतर

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<poem>आरक्षण भाई
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<poem>जीवन की आपाधापी से
उसे तुमसे कोई वैर नहीं है
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लेकर कुछ बक्त उधार
मगर मन मसोस कर
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लौटता हूँ जब
रह जाता है वह
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गाँव के गलियारों में
जब तुम
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तो चाहता हूँ जी लेना
साथ नहीं दे पाते
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फिर से
उस होनहार युवा का l  
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वही पुराने दिन 
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मगर घेर लेती हैं मुझे वहां भी 
 +
कुछ नयी व्यस्ततायें
 +
और जिम्मेदारियां  l
  
वह अभावग्रस्त है
+
बचपन के उन लंगोटिए दोस्तों से  
और जरुरतमंद भी 
+
मिल पाता हूँ सिर्फ
मगर हो जाता है बाहर
+
कुछ ही पल के लिए
तय मानदंडो से  
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वह भी तो होते हैं व्यस्त आखिर
मात्र इसीलिए
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अपनी - 2 जिम्मेदारियों
क्योंकि
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के निर्वहन में
पार कर चुका है वह  
+
इसीलिए नहीं करता शिकायत
उम्र का एक पड़ाव
+
किसी से भी l
नहीं कर सकता आवेदन
+
उस नौकरी के लिए
+
जिसकी उसे नितांत जरुरत है  l
+
  
तुम्हारे आरम्भ का स्मरण
+
सोचता हूँ कि सच में
हो चलता है फिर उसे
+
कितने बेहतर थे वो दिन
ईजाद हुए थे तुम
+
बचपन से लेकर लड़कपन तक के  
आजादी के बाद
+
बेफिक्री के आलम में
महज एक दशक के लिए ही
+
निकल जाना घर से
ताकि तुम पाट सको खाई
+
और फिर लौट आना वैसे ही
असमानता की l
+
हरफनमौलाओं की तरह
 +
बेपरवाह l
  
विकास की
+
जवानी की दहलीज पर
मुख्यधारा से जोड़ सको
+
कदम रखते ही  
पीछे रह चुके लोगों को
+
हावी हो जाना उस जूनून का 
कितने ही दशक बीत चुके
+
करना घंटों तक बातें
मगर तुम आज भी चलायमान हो
+
आदर्शवाद और क्रान्ति की l
पा चुके हो जीवनदान
+
अनेको बार  l
+
  
असमानता की जिस खाई को
 
पाटना था तुम्हे
 
वो तो और भी
 
गहराती जा रही है l
 
  
गरीबी नहीं आती है
 
कुल,समुदाय या मजहब देखकर
 
फिर क्यूँ तुम्हें बाँट दिया गया है
 
कुछ चुनिन्दा विशिष्ट जनों में ही
 
रेवड़ियों की तरह l
 
  
सही मायनो में
 
अगर संबल बनना
 
चाहते हो समाज का
 
तो आर्थिक आधार पर
 
ही तुम्हे लागू करना लाजमी होगा l
 
  
पैमाना बदल जायेगा
+
 
मगर निष्पक्ष होकर तुम
+
आयोजित कर सभाएं, बैठकें
साथ दे पाओगे
+
शामिल होना रैलियों में भी
हर जरूरतमंद का
+
बनाना योजनाएं
चाहे वह सम्बन्ध रखता हो
+
अर्धरात्रि तक जागकर
किसी भी कुल
+
ताकि बदला जा सके समाज
जाति या धर्म से   
+
और उसकी सोच को l
 +
मेरे दोस्त आज भी
 +
वही पुराने चेहरे हैं
 +
मगर बक्त के रेले में
 +
छिटक गए हैं हम सब
 +
अपने - 2 कर्मपथ पर l
 +
 
 +
बेशक आ गया होगा फर्क
 +
चाहे मामूली सा ही सही
 +
हम सब के नजरिये
 +
और सोचने के तरीकों में
 +
झुलसकर निज अनुभवों की
 +
भठ्ठी की ऊष्मा से l
 +
   
 +
मगर वो मौलिक सोच यक़ीनन
 +
आज भी जिन्दा है
 +
कहीं ना कहीं
 +
जो कर देती है उद्विगन
 +
दिलो – दिमाग  को
 +
और सुलगा जाती है अंगारे 
 +
बदलाब और क्रांति के लिए l
  
 
</poem>
 
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17:08, 1 मार्च 2016 का अवतरण

{{KKRachna | रचनाकार=

जीवन की आपाधापी से
लेकर कुछ बक्त उधार
लौटता हूँ जब
गाँव के गलियारों में
तो चाहता हूँ जी लेना
फिर से
वही पुराने दिन
मगर घेर लेती हैं मुझे वहां भी
कुछ नयी व्यस्ततायें
और जिम्मेदारियां l

बचपन के उन लंगोटिए दोस्तों से
मिल पाता हूँ सिर्फ
कुछ ही पल के लिए
वह भी तो होते हैं व्यस्त आखिर
अपनी - 2 जिम्मेदारियों
के निर्वहन में
इसीलिए नहीं करता शिकायत
किसी से भी l

सोचता हूँ कि सच में
कितने बेहतर थे वो दिन
बचपन से लेकर लड़कपन तक के
बेफिक्री के आलम में
निकल जाना घर से
और फिर लौट आना वैसे ही
हरफनमौलाओं की तरह
बेपरवाह l

जवानी की दहलीज पर
कदम रखते ही
हावी हो जाना उस जूनून का
करना घंटों तक बातें
आदर्शवाद और क्रान्ति की l





आयोजित कर सभाएं, बैठकें
शामिल होना रैलियों में भी
बनाना योजनाएं
अर्धरात्रि तक जागकर
ताकि बदला जा सके समाज
और उसकी सोच को l
मेरे दोस्त आज भी
वही पुराने चेहरे हैं
मगर बक्त के रेले में
छिटक गए हैं हम सब
अपने - 2 कर्मपथ पर l

बेशक आ गया होगा फर्क
चाहे मामूली सा ही सही
हम सब के नजरिये
और सोचने के तरीकों में
झुलसकर निज अनुभवों की
भठ्ठी की ऊष्मा से l
 
मगर वो मौलिक सोच यक़ीनन
आज भी जिन्दा है
कहीं ना कहीं
जो कर देती है उद्विगन
दिलो – दिमाग को
और सुलगा जाती है अंगारे
बदलाब और क्रांति के लिए l