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"कुछ शब्द चाहिए / रश्मि भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर

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दायरों और मापदण्डों का इतिहास नया तो नहीं
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मुझे फूलों की तरह हल्के कुछ शब्द चाहिए
सदियों से धरती की उपाधि से गर्वित मन
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निर्दोष, पवित्र, मासूम शब्द
इस सच से अनजान भी नहीं
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जो उठा सकें बोझ
कि जननी भोग्या भी बन सकती है
+
मेरी भावनाओं का
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जिनके सहारे मैं
 +
जी सकूँ हमारा रिश्ता
 +
शायद ये भारी-भरकम शब्द
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जो तैर रहें होते हैं हमारे बीच
 +
हमें दूर कर देते हैं हर बार
 +
थोड़ा और।
  
पुराने मानकों से निवृति पाए बिना
+
बौद्धिकता का एक
अब नहीं पनप सकता है प्रेम
+
छद्म आवरण
माना कि बोए गए सृजन के बीज
+
छीन लेता है
लेकिन इनकार करती है वह धरती होने से
+
रिश्तों की गर्माहट
जिस पर किया जा सके स्वामित्व
+
और हम ठिठुरते रह जाते हैं
जिसे काटा जोता और बोया जा सके
+
शब्दों के बनते-बिगड़ते
जिसे ख़रीदा और बेचा जा सके
+
समीकरण के साथ
जिसे रौंदा जा सके निर्मम पद प्रहारों से
+
नितान्त अकेले।
और फ़सल नहीं आए तो
+
चस्पाँ कर दिया जाए
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बंजर का तमगा।
+
  
दायरे तब भी रहेंगे
+
कितनी सहज रही होगी ज़िन्दगी
मापदण्ड तब भी तय किए जाएँगे
+
आदम और हव्वा की
विभक्त तब भी होगी वो
+
ज्ञान का वर्जित फल चख़ने से पहले
तमाम स्नेह-बन्धनों में
+
भावनाएँ तो तब भी रही होंगी
लेकिन ये सुकून रहेगा
+
उद्दात, प्रेममयी
उसने ख़ुद को खोया नहीं है
+
नफ़रत, क्रोध, ईर्ष्या
विशेषणों के आडम्बर में
+
सब कुछ तो रहा होगा
धरती होने से इनकार करना
+
लेकिन नहीं ढोना होता होगा उन्हें
विद्रोह नहीं है उसका
+
कृत्रिम शब्दों का बोझ
बस एक भरोसा है
+
आती होगी उनमें से
ख़ुद को दिया हुआ
+
बनेले फूलों-सी ही गन्ध
कि उसका 'स्वत्व 'सुरक्षित है
+
ऐसे फूल जिन्हें
कि उसने सहेज रखा है
+
माली की निरन्तर देखरेख में
ख़ुद को भी
+
गमलों में नहीं उगाया जाता
सब कुछ होते हुए भी
+
जो ख़ुद ही उग आते हैं
वो पहले है इक इंसान
+
अपनी मिट्टी, अपनी रोशनी
हर परिभाषा, दायरे और मानकों से परे
+
और अपने ही आकाश के सहारे
 +
मुझे भी ऐसे ही शब्द उगाने हैं
 +
मेरे और तुम्हारे लिए
 +
उधार के शब्दों से
 +
नहीं लौटा सकूँगी
 +
ज़िन्दगी का वो बकाया
 +
जो मुझे तुम्हारे साथ रहकर ही लौटाना है
 
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05:44, 19 जून 2016 के समय का अवतरण

मुझे फूलों की तरह हल्के कुछ शब्द चाहिए
निर्दोष, पवित्र, मासूम शब्द
जो उठा सकें बोझ
मेरी भावनाओं का
जिनके सहारे मैं
जी सकूँ हमारा रिश्ता
शायद ये भारी-भरकम शब्द
जो तैर रहें होते हैं हमारे बीच
हमें दूर कर देते हैं हर बार
थोड़ा और।

बौद्धिकता का एक
छद्म आवरण
छीन लेता है
रिश्तों की गर्माहट
और हम ठिठुरते रह जाते हैं
शब्दों के बनते-बिगड़ते
समीकरण के साथ
नितान्त अकेले।

कितनी सहज रही होगी ज़िन्दगी
आदम और हव्वा की
ज्ञान का वर्जित फल चख़ने से पहले
भावनाएँ तो तब भी रही होंगी
उद्दात, प्रेममयी
नफ़रत, क्रोध, ईर्ष्या
सब कुछ तो रहा होगा
लेकिन नहीं ढोना होता होगा उन्हें
कृत्रिम शब्दों का बोझ
आती होगी उनमें से
बनेले फूलों-सी ही गन्ध
ऐसे फूल जिन्हें
माली की निरन्तर देखरेख में
गमलों में नहीं उगाया जाता
जो ख़ुद ही उग आते हैं
अपनी मिट्टी, अपनी रोशनी
और अपने ही आकाश के सहारे
मुझे भी ऐसे ही शब्द उगाने हैं
मेरे और तुम्हारे लिए
उधार के शब्दों से
नहीं लौटा सकूँगी
ज़िन्दगी का वो बकाया
जो मुझे तुम्हारे साथ रहकर ही लौटाना है