"सम्पराय / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई। <br> <br> | आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई। <br> <br> | ||
यहाँ चुक गई डगर: <br> | यहाँ चुक गई डगर: <br> | ||
उलहना नहीं, मानता हूँ पर <br> | उलहना नहीं, मानता हूँ पर <br> | ||
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एक कुहासे की देहरी पर: <br> | एक कुहासे की देहरी पर: <br> | ||
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धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे, <br> | धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे, <br> | ||
हठ धर, <br> | हठ धर, <br> | ||
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कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से <br> | कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से <br> | ||
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कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु, <br> | कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु, <br> | ||
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नाता ही एक नहीं बदला: <br> | नाता ही एक नहीं बदला: <br> | ||
वह एक खोजता राही <br> | वह एक खोजता राही <br> | ||
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जो पहुँचा कर चुक जाती? <br> | जो पहुँचा कर चुक जाती? <br> | ||
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न बन जाते ललकार <br> | न बन जाते ललकार <br> | ||
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क्या जाने वह डूबा, तैरा, <br> | क्या जाने वह डूबा, तैरा, <br> | ||
या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया? <br> | या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया? <br> | ||
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− | कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे: <br> | + | कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे: <br> <!---"बैठ रहे" ही ठीक है---> |
जो आएँ उन्हें असीसे, <br> | जो आएँ उन्हें असीसे, <br> | ||
जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे <br> | जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे <br> | ||
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− | हो सकता है: पर मेरे द्वारा | + | हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं— <br> |
अब नहीं। <br> | अब नहीं। <br> | ||
मैं जिस देहरी पर हूँ <br> | मैं जिस देहरी पर हूँ <br> | ||
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हठ में कमी नहीं है, <br> | हठ में कमी नहीं है, <br> | ||
मेरा संकल्प भी डगमग, <br> | मेरा संकल्प भी डगमग, <br> | ||
− | किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ | + | किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं— <br> |
− | मुझे पूछना है | + | मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से <br> |
− | ::::यह पूछ | + | ::::यह पूछ सकूँ— <br> |
'वह दीख रहा है पार मुझे, <br> | 'वह दीख रहा है पार मुझे, <br> | ||
पर बोलो, <br> | पर बोलो, <br> | ||
− | उस तक जाने का क्या है | + | उस तक जाने का क्या है उपाय— <br> |
है क्या उपाय? <br> | है क्या उपाय? <br> | ||
रूप: <br> | रूप: <br> | ||
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और कहाँ तक यही अनुक्रम! <br> | और कहाँ तक यही अनुक्रम! <br> | ||
कितना और कुहासा <br> | कितना और कुहासा <br> | ||
− | कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर <br> | + | कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर? <br> |
कितना हठ? <br> | कितना हठ? <br> | ||
− | कितने-कितने | + | कितने-कितने मन—कितना उछाह?' <br> <br> |
है राह! <br> | है राह! <br> | ||
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तीर्थाटन को निकला हूँ <br> | तीर्थाटन को निकला हूँ <br> | ||
कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की: <br> | कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की: <br> | ||
− | गाता जाता | + | गाता जाता हूँ— <br> |
'है, पथ है: <br> | 'है, पथ है: <br> | ||
− | वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार- | + | वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार— <br> |
यों नहीं कि वह चुक जाता है: <br> | यों नहीं कि वह चुक जाता है: <br> | ||
− | पर तीर्थ यही तो होते | + | पर तीर्थ यही तो होते हैं— <br> |
− | + | अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय: <br> | |
हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!' <br> <br> | हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!' <br> <br> |
09:05, 12 अप्रैल 2008 का अवतरण
हाँ, भाई,
वह राह
मुझे मिली थी;
कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई
मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे—
आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई।
यहाँ चुक गई डगर:
उलहना नहीं, मानता हूँ पर
आज वहीं हूँ जहाँ कभी था—
एक कुहासे की देहरी पर:
दीख रहा है
पार
रूप—रूपायमान—रूपायित—
पहचाना कुछ: जिधर फिर बढ़ूँ—
धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे,
हठ धर,
मन में भर
उछाह!
कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से
एक बार वह पार गया है?
नहीं, वही वहीं है कहीं और:
यह ठौर
नया है उतना ही जितनी यह राह,
कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु,
यह मैं भी:
सभी नया है—
नाता ही एक नहीं बदला:
वह एक खोजता राही
एक कुहासे की देहरी पर
लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की
बढ़ता हठ धर
अनजाने कुछ की ओर
भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार!
रूप,
रूपायमान,
रूपायित।
यों गृहीत,
पहचाना।
फिर इस लिए अनृत
एकान्त झूठ!
वह कैसे होती यात्रा
जो पहुँचा कर चुक जाती?
झूठा होगा वह तीर्थ
सरोवर, नदी, महासागर का जो किनारा-भर होता।
जहाँ से अपने ही संकल्प
न बन जाते ललकार
नए अनजाने पानी में घुसने की।
ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं:
पर क्या जाने वे किस के हैं?
क्या जाने वह डूबा, तैरा,
या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया?
या—क्या जाने?—ये फूल स्वयं उस की भस्मी के ही
- प्रतीक हैं?
- प्रतीक हैं?
यह भी हो सकता है
कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे:
जो आएँ उन्हें असीसे,
जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे
जो पार स्वयं वह कर आया।
हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं—
अब नहीं।
मैं जिस देहरी पर हूँ
तीर्थ नहीं,
वह सम्पराय है।
हठ में कमी नहीं है,
मेरा संकल्प भी डगमग,
किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं—
मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से
- यह पूछ सकूँ—
- यह पूछ सकूँ—
'वह दीख रहा है पार मुझे,
पर बोलो,
उस तक जाने का क्या है उपाय—
है क्या उपाय?
रूप:
रूप,
रूपायमान,
रूपायित।
स्पृष्ट। अनृत।
प्रव्रजित!
और कहाँ तक यही अनुक्रम!
कितना और कुहासा
कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर?
कितना हठ?
कितने-कितने मन—कितना उछाह?'
है राह!
कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के। है।
मैं हूँ तो वह भी है,
तीर्थाटन को निकला हूँ
कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की:
गाता जाता हूँ—
'है, पथ है:
वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार—
यों नहीं कि वह चुक जाता है:
पर तीर्थ यही तो होते हैं—
अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय:
हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!'