भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"राष्ट्रवाद / पवन करण" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पवन करण |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <po...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
उन्नीस सौ चौरासी को ही लें
 
उन्नीस सौ चौरासी को ही लें
 
जिसमें सिखों के विरूद्ध दंगों में
 
जिसमें सिखों के विरूद्ध दंगों में
''हम सब'' राष्ट्रवादी थे
+
'हम सब' राष्ट्रवादी थे
  
 
एक बड़े राष्ट्र के ऐसे राष्ट्रवादी
 
एक बड़े राष्ट्र के ऐसे राष्ट्रवादी
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
 
एक छोटे राष्ट्रवाद के
 
एक छोटे राष्ट्रवाद के
 
तथाकथित नागरिकों की निर्ममता से
 
तथाकथित नागरिकों की निर्ममता से
दाढिय़ां नोच रहे थे, जला रहे थे
+
दाढ़ियाँ नोच रहे थे, जला रहे थे
उनके घरों के साथ-साथ उन्हें भी जिंदा
+
उनके घरों के साथ-साथ उन्हें भी ज़िन्दा
  
 
बड़े राष्ट्रवाद के टूटने के डर से
 
बड़े राष्ट्रवाद के टूटने के डर से
 
छोटे राष्ट्रवाद को सबक सिखाते
 
छोटे राष्ट्रवाद को सबक सिखाते
 
हम राष्ट्रवादी घोंटने में जुटे थे
 
हम राष्ट्रवादी घोंटने में जुटे थे
उन ही की रंग-बिरंगी पगडिय़ों से
+
उन ही की रंग-बिरंगी पगड़ियों से
 
उनके गले, उन्हीं की तलवारों से बेधने में
 
उनके गले, उन्हीं की तलवारों से बेधने में
मशगूल थे उनकी छातियां,
+
मशगूल थे उनकी छातियाँ,
 
भोंकने को थे तत्पर
 
भोंकने को थे तत्पर
 
उन्हीं के पेटों में उनकी कृपाणें
 
उन्हीं के पेटों में उनकी कृपाणें
पंक्ति 30: पंक्ति 30:
 
उन्नीस सौ चौरासी को लेकर
 
उन्नीस सौ चौरासी को लेकर
 
राष्ट्रवाद के इस हमाम में
 
राष्ट्रवाद के इस हमाम में
हम सब नंगों के मुंह अब तक
+
हम सब नंगों के मुँह अब तक
बस इसीलिये सिले हैं
+
बस इसीलिए सिले हैं
 
क्योंकि तब सिखों को
 
क्योंकि तब सिखों को
 
राष्ट्रवादियों के हाथों में ही
 
राष्ट्रवादियों के हाथों में ही
सबसे ज्यादा हथियार मिले हैं
+
सबसे ज़्यादा हथियार मिले हैं
  
 
अपने ही पेट को चीरकर
 
अपने ही पेट को चीरकर
अपना ही खून पीना चाहता
+
अपना ही ख़ून पीना चाहता
 
राष्ट्रवाद बड़ा हो या छोटा
 
राष्ट्रवाद बड़ा हो या छोटा
दोनों ही स्थितियों में उसके दांत
+
दोनों ही स्थितियों में उसके दाँत
और नाखून बहुत पैने होते हैं।
+
और नाख़ून बहुत पैने होते हैं।
 
</poem>
 
</poem>

11:52, 6 जुलाई 2016 का अवतरण

एक राष्ट्र के लिये राष्ट्रवाद से बुरा कुछ भी नहीं
उन्नीस सौ चौरासी को ही लें
जिसमें सिखों के विरूद्ध दंगों में
'हम सब' राष्ट्रवादी थे

एक बड़े राष्ट्र के ऐसे राष्ट्रवादी
जो राष्ट्र के भीतर उभर रहे
एक छोटे राष्ट्रवाद के
तथाकथित नागरिकों की निर्ममता से
दाढ़ियाँ नोच रहे थे, जला रहे थे
उनके घरों के साथ-साथ उन्हें भी ज़िन्दा

बड़े राष्ट्रवाद के टूटने के डर से
छोटे राष्ट्रवाद को सबक सिखाते
हम राष्ट्रवादी घोंटने में जुटे थे
उन ही की रंग-बिरंगी पगड़ियों से
उनके गले, उन्हीं की तलवारों से बेधने में
मशगूल थे उनकी छातियाँ,
भोंकने को थे तत्पर
उन्हीं के पेटों में उनकी कृपाणें

उन्नीस सौ चौरासी को लेकर
राष्ट्रवाद के इस हमाम में
हम सब नंगों के मुँह अब तक
बस इसीलिए सिले हैं
क्योंकि तब सिखों को
राष्ट्रवादियों के हाथों में ही
सबसे ज़्यादा हथियार मिले हैं

अपने ही पेट को चीरकर
अपना ही ख़ून पीना चाहता
राष्ट्रवाद बड़ा हो या छोटा
दोनों ही स्थितियों में उसके दाँत
और नाख़ून बहुत पैने होते हैं।