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खिड़कियाँ खुली हों / डी. एम. मिश्र
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10:21, 1 जनवरी 2017
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<poem>
वह जल भुन गया
कविता का
अंगार पड़ गया
राग दरबारी वाले कान
सही बात के लिए
बहरे होते है
कसाई के लिए
आम आदमी
बकरे होते हैं
ताक़त अंधा बना देती है
जब लोग
काले गड्ढों के
अँधेरों में भटक् जाते हैं
और रोशनी में
आनें से घबराते हैं
बेहतरी इसमें है कि
खिड़कियाँ खुली हों और
हवाओं पर पाबंदी न हो
अपने भीतर की हवा भी
देर तक ठहर जाये तो
दम घुटता है
फिर
जो नहीं बदल पाता
वो पोखर का
पानी हो जाता है
खूँटा गाड़कर बैठ जाना
या बँधकर उसमें रह जाना
आप बताइये
दोनों में क्या दूरी है
ताकत छायादार हो
ख़ौफ और दहशत में
दोनों तरफ़ आग हो
</poem>
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