"अनुभूति होनी चाहिए / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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+ | क्या किसी का दर्द कोई बाँट लेगा | ||
+ | क्या किसी की पीर कोई सह सकेगा | ||
+ | पर, सभी के दर्द की अनुभूति होनी चााहिए | ||
+ | हर किसी को पीड़ितों से प्रीति होनी चाहिए | ||
+ | बाँसुरी में छेद हैं कुछ, कुछ हवा है | ||
+ | बस इसी का नाम ही जीवन हुआ है | ||
+ | उस घड़े के मर्म को है कौन सुनता | ||
+ | जो किसी की मृत्यु पर है घंट बनता | ||
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+ | इस सफ़र का ध्येय क्या है | ||
+ | लक्ष्य का उद्देश्य क्या है | ||
+ | जो मिले सन्दर्भ ढूँढे | ||
+ | सबके सब सम्बन्ध झूठे | ||
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+ | ज़िन्दगी भर कौन किसका साथ देगा | ||
+ | कौन बाँहें उम्र भर थामे रहेगा | ||
+ | व्यक्ति में पर व्यक्ति की अनुरक्ति होनी चाहिए | ||
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+ | मानते हैं हम कि कविता की कुछ न देगी | ||
+ | ज़िन्दगी भी आखि़री पल कुछ न लेगी | ||
+ | राज है यह आज केवल कल नहीं है | ||
+ | इस मुसीबत का कहीं भी हल नहीं है | ||
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+ | लोक यह किसके लिए है | ||
+ | कौन कितने दिन जिए है | ||
+ | लोग पायेंगे यहाँ क्या | ||
+ | कुछ नहीं दिखता कहाँ क्या | ||
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+ | गीत गाने से न कोई ग़म घटेगा | ||
+ | इस सभा से हल न मसला हो सकेगा | ||
+ | पर, ज़माने के लिए अभिव्यक्ति होनी चाहिए | ||
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+ | आदमी गर आदमी को दे सहारा | ||
+ | दूर हो जाये पलों में कष्ट सारा | ||
+ | सब चतुर हैं इसलिए जाते ठगे सब | ||
+ | एक ही अपराध में जैसे लगे सब | ||
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+ | लेाग कुछ उपदेश में हैं | ||
+ | कुछ छिपे परिवेश में हैं | ||
+ | भावना सब की धनी है | ||
+ | पर व्यथा से अनसुनी है | ||
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+ | थाल अपनी दूसरे को कौन देगा | ||
+ | कौन है जो ऐश अपना कम करेगा | ||
+ | पर, समन्वय की दया की नीति होनी चाहिए | ||
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23:07, 1 जनवरी 2017 का अवतरण
क्या किसी का दर्द कोई बाँट लेगा
क्या किसी की पीर कोई सह सकेगा
पर, सभी के दर्द की अनुभूति होनी चााहिए
हर किसी को पीड़ितों से प्रीति होनी चाहिए
बाँसुरी में छेद हैं कुछ, कुछ हवा है
बस इसी का नाम ही जीवन हुआ है
उस घड़े के मर्म को है कौन सुनता
जो किसी की मृत्यु पर है घंट बनता
इस सफ़र का ध्येय क्या है
लक्ष्य का उद्देश्य क्या है
जो मिले सन्दर्भ ढूँढे
सबके सब सम्बन्ध झूठे
ज़िन्दगी भर कौन किसका साथ देगा
कौन बाँहें उम्र भर थामे रहेगा
व्यक्ति में पर व्यक्ति की अनुरक्ति होनी चाहिए
मानते हैं हम कि कविता की कुछ न देगी
ज़िन्दगी भी आखि़री पल कुछ न लेगी
राज है यह आज केवल कल नहीं है
इस मुसीबत का कहीं भी हल नहीं है
लोक यह किसके लिए है
कौन कितने दिन जिए है
लोग पायेंगे यहाँ क्या
कुछ नहीं दिखता कहाँ क्या
गीत गाने से न कोई ग़म घटेगा
इस सभा से हल न मसला हो सकेगा
पर, ज़माने के लिए अभिव्यक्ति होनी चाहिए
आदमी गर आदमी को दे सहारा
दूर हो जाये पलों में कष्ट सारा
सब चतुर हैं इसलिए जाते ठगे सब
एक ही अपराध में जैसे लगे सब
लेाग कुछ उपदेश में हैं
कुछ छिपे परिवेश में हैं
भावना सब की धनी है
पर व्यथा से अनसुनी है
थाल अपनी दूसरे को कौन देगा
कौन है जो ऐश अपना कम करेगा
पर, समन्वय की दया की नीति होनी चाहिए