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12:46, 30 जनवरी 2017 के समय का अवतरण
और भी है घास
जो उग आती है
खेतों में धान के बहुत पास
और जो फिर भी है
आदमी के मन से उतनी ही दूर
जितना कि उसका आकाश
गंदे नालों के किनारे
अपने मन से उग आई घास
नहीं है फिर भी उतनी उदास
इसलिए शायद
कि वह है अपनी स्वायत्तता के बहुत पास
 
दिखती है जितनी हरी लान की घास
हरीतिमा से है उतनी ही दूर
मशीन उसकी हजामत बनाती है
आदमी की सभ्यता और सौन्दर्य-बोध का पाठ
उसे हर रोज पढ़ाती है
काश! वह उगती और फैलती
बराबर अपनी ही तरह से
लान की घास
जिसे हम
उसकी अपनी मिट्टी में
फैलने पसरने नहीं देते
आदमी के महानागर सोच से
कितनी दूर है
उसे अपने भीतर
उगने-पसरने देने की बात
जिसमें आधुनिक सभ्यता
और आदमी के सौन्दर्य-बोध का
न कोई तुक है
और न कोई अनुप्रास
(प्रयाग शुक्ल की कविता 
एक शाम जब मन हुआ घास पर कविता लिखने का  
के विशेष संदर्भ में )
	
	