भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शूलों का विक्रेता / विजय कुमार विद्रोही" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार विद्रोही |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
अपनों का , सपनों का , रिश्तों का था ऐसा याराना ।
+
कपटकाल का श्यामल युग है मैं भावों की त्रेता हूँ
एक साथ जीवन में हरदम रहता था आना – जाना ।
+
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ
इनका रिश्ता सुखद,सुकोमल जल-मछली के जैसा था ।
+
अपना मधुबन पुष्प तो,सपना सुंदर तितली जैसा था ।
+
रिश्ते,अपने,सपने तीनों अच्छे साथी बनके रहते थे ।
+
कुसुम-भ्रमर तो कभी कोई दो दीपक-बाती रहते थे ।
+
+
फिर अपने ने रिश्ते के कानों में कुछ-2 बात कही ।
+
सपना भी अपना ही था ना बात ये उनको याद रही ।
+
रिश्तों ने , अपनों ने जब सपनों का यूँ प्रतिकार किया ।
+
सपनों ने अपनों से इस रिश्ते को भी स्वीकार किया ।
+
अपनों से जब सपनों के रिश्ते टूटे चकनाचूर हुऐ ।
+
तब वो सपने अपनों से , रिश्तों से इतना दूर हुऐ ।
+
  
अपनों से सपनों के बंधन की जो नाज़ुक डोरी है
+
संविधान में आग लगा दो यहाँ निर्भया रोती है
रिश्तों की सतरंगी दुनिया में भी कोरी-कोरी है ।
+
लुप्त दामिनी लोकतंत्र के दूषित पगतल धोती है
अपनों के बिन सपना सपने जैसा लगता है ।
+
कहाँ मर गऐ आतंकी जो जेहादी कहलाते हैं
फिर भी रिश्ता सपने से क्यूँ अपने जैसा लगता है ।
+
निर्दोषों का ख़ून बहाकर चिरबाग़ी बन जाते हैं
 +
आज बताओ कहाँ सुप्त हो क्या आडम्बर धारे हो
 +
मुझे बता दो मौन धरे अब किस मज़हब के प्यारे हो
 +
आज कहो क्यों अपना छप्पन इंची सीना छिपा रहे
 +
झाड़ू के तिनकों सी तुम नंगी कायरता दिखा रहे
 +
लुटी अचेतन आँखों सी पथराई नैया खेता हूँ
 +
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ
 +
 
 +
मद्धम शीतल मलय पवन अब बारूदों की दासी है  
 +
अधिकारों की लालायित आशाऐं खूँ की प्यासी हैं
 +
अंतर्मन में जनमानस की पीड़ा का अम्बार भरा
 +
इसी हृदय में मेरे भूखे बचपन के हित प्यार भरा
 +
गली के निर्बल ढाँचे की चेहरे की झुर्री देख रहा
 +
बरसों से आँगन की टूटी खटिया खुर्री देख रहा
 +
मुझे बताओ कैसे गुलशन बाग सींचने लग जाऊँ
 +
मुझे कहो कैसे बहनों का चीर खींचने लग जाऊँ
 +
अनललेख के तप्तभाव को मैं अपना स्वर देता हूँ
 +
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ
 +
 
 +
नेत्रलहू की स्याही को तलवार बनाकर लिखता हूँ
 +
मैं शब्दों का शीतसुमन अंगार बनाकर लिखता हूँ
 +
चिपके पेटों को लखकर रोटी की बीन बजाता हूँ
 +
दर्पण बनकर मैं समाज को सत्यछबि दिखलाता हूँ
 +
मेरे अक्षर अक्षर में तुम एक प्रलय टंकार सुनो
 +
शब्दनाद पोषित कर देखो अमिट अनल हुंकार सुनो
 +
पीड़ाज्वार लखो तुम लुटती बाला की चीखें सुन लो
 +
बूढ़े बेबस आँसू से तुम अपना सकल हश्र बुन लो
 +
मैं समाज का एकमुखी घट जो लेता वो देता हूँ
 +
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ
 
</poem>
 
</poem>

12:57, 14 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

कपटकाल का श्यामल युग है मैं भावों की त्रेता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

संविधान में आग लगा दो यहाँ निर्भया रोती है
लुप्त दामिनी लोकतंत्र के दूषित पगतल धोती है
कहाँ मर गऐ आतंकी जो जेहादी कहलाते हैं
निर्दोषों का ख़ून बहाकर चिरबाग़ी बन जाते हैं
आज बताओ कहाँ सुप्त हो क्या आडम्बर धारे हो
मुझे बता दो मौन धरे अब किस मज़हब के प्यारे हो
आज कहो क्यों अपना छप्पन इंची सीना छिपा रहे
झाड़ू के तिनकों सी तुम नंगी कायरता दिखा रहे
लुटी अचेतन आँखों सी पथराई नैया खेता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

मद्धम शीतल मलय पवन अब बारूदों की दासी है
अधिकारों की लालायित आशाऐं खूँ की प्यासी हैं
अंतर्मन में जनमानस की पीड़ा का अम्बार भरा
इसी हृदय में मेरे भूखे बचपन के हित प्यार भरा
गली के निर्बल ढाँचे की चेहरे की झुर्री देख रहा
बरसों से आँगन की टूटी खटिया खुर्री देख रहा
मुझे बताओ कैसे गुलशन बाग सींचने लग जाऊँ
मुझे कहो कैसे बहनों का चीर खींचने लग जाऊँ
अनललेख के तप्तभाव को मैं अपना स्वर देता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

नेत्रलहू की स्याही को तलवार बनाकर लिखता हूँ
मैं शब्दों का शीतसुमन अंगार बनाकर लिखता हूँ
चिपके पेटों को लखकर रोटी की बीन बजाता हूँ
दर्पण बनकर मैं समाज को सत्यछबि दिखलाता हूँ
मेरे अक्षर अक्षर में तुम एक प्रलय टंकार सुनो
शब्दनाद पोषित कर देखो अमिट अनल हुंकार सुनो
पीड़ाज्वार लखो तुम लुटती बाला की चीखें सुन लो
बूढ़े बेबस आँसू से तुम अपना सकल हश्र बुन लो
मैं समाज का एकमुखी घट जो लेता वो देता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ