भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हिरोशिमा / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=अज्ञेय
 
|रचनाकार=अज्ञेय
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
एक दिन सहसा  
 
एक दिन सहसा  
 
 
सूरज निकला
 
सूरज निकला
 
 
अरे क्षितिज पर नहीं,
 
अरे क्षितिज पर नहीं,
 
 
नगर के चौक:
 
नगर के चौक:
 
 
धूप बरसी
 
धूप बरसी
 
 
पर अंतरिक्ष से नहीं,
 
पर अंतरिक्ष से नहीं,
 
 
फटी मिट्टी से।
 
फटी मिट्टी से।
 
  
 
छायाएँ मानव-जन की
 
छायाएँ मानव-जन की
 
 
दिशाहिन
 
दिशाहिन
 
 
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
 
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
 
 
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
 
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
 
 
बरसा सहसा
 
बरसा सहसा
 
 
बीचों-बीच नगर के:
 
बीचों-बीच नगर के:
 
+
काल-सूर्य के रथ के
काल-सूर्य के रथ्‍ा के
+
 
+
 
पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
 
पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
 
 
बिखर गए हों
 
बिखर गए हों
 
 
दसों दिशा में।
 
दसों दिशा में।
 
  
 
कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
 
कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
 
 
केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
 
केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
 
 
दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
 
दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
 
 
फिर?
 
फिर?
 
 
छायाएँ मानव-जन की
 
छायाएँ मानव-जन की
 
 
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
 
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
 
 
मानव ही सब भाप हो गए।
 
मानव ही सब भाप हो गए।
 
 
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
 
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
 
 
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
 
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
 
 
उजरी सड़कों की गच पर।
 
उजरी सड़कों की गच पर।
 
  
 
मानव का रचा हुया सूरज
 
मानव का रचा हुया सूरज
 
 
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
 
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
 
 
पत्‍थर पर लिखी हुई यह
 
पत्‍थर पर लिखी हुई यह
 
 
जली हुई छाया  
 
जली हुई छाया  
 
 
मानव की साखी है।
 
मानव की साखी है।
 +
</poem>

00:26, 2 नवम्बर 2009 का अवतरण

एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक:
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की
दिशाहिन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्‍थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।