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"गायों को नहीं पता / कुमार सौरभ" के अवतरणों में अंतर

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गायें नहीं जानती कि
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उनके लिए वेदों में क्या लिखा है
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यह वेदपाठी पौराणिक ब्राह्मण जानते होंगे
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गायें नहीं जानती
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गायें नहीं पढ़ सकती भारत का संविधान
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उनके ऊपर सजाई जाएँगी सत्ता की गद्दियाँ
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वे प्रतियाँ रखवाई जाएँगी
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क्या आखिरी दिनों में आंबेडकर को
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इन्हीं बातों का तीव्र आभास होने लगा था ?
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उन्हें बुद्ध बेतरह ध्यान आते थे
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इतिहास बार बार दोहराता है कि
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जिन्हें गायों की ही नहीं
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वधिकों की भी बराबर की फिक्र थी
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जिन्हें विश्वास था कि बची रही मनुष्यता
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कुछ भी शुभ
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घोर आस्था थी उनकी उस कथा पर
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जिसमें तथागत के महज़ कुछ सवालों से
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काँप-काँप कर ढहने लगी थी
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अंगुलीमाल की नृशंस मनोरचना !
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कोई तूफान कोई भूकंप नहीं था
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सिद्ध करुणा थी यह सिद्धार्थ की !
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इतिहास की किताबों में शायद ही मिले
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लेकिन इसी करुणा से आबद्ध प्राण तजते रहे
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कलयुगी चरम पर भी
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कई सज्जन साधु सन्यासी !
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गायों ने तब भी करुणा का स्पर्श बहुत ही कम पाया
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फिर भी बिचारियों ने सिर्फ सहना सीखा
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कभी क्रोध नहीं दिखाया
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छोड़कर अपवाद
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बछड़ों के असुरक्षाबोध के क्षणों का!
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गायों को क्या पता
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कि वे सैकड़ों करोड़ों मनु संतानों की माएँ हैं
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वे इतना ज़रूर जानती होंगी
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कि जिनकी वे माएँ हैं
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उनके हिस्से का दूध भी
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उनसे छीन लिया जाता है !
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गायों को नहीं पता कि
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किसी अखलाक की हत्या का जिम्मेवार
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उन्हें ठहराया जा चुका है
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उन्हीं को बचाने के बहाने
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उन्हीं की खाल ओढ़कर
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भय का दिग्विजय अभियान चलाया जा रहा है
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सरेआम हत्यायें की जा रही हैं
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और इस माहौल में
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हत्यारों, हत्यारी सत्ता और व्यवस्था से नहीं
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बल्कि उनसे तेज़ाबी घृणा
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करने वालों की तादाद
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बहुत बढ़ती जा रही है
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कि वे बुद्धिजीवियों के प्रतिरोध
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की अनिवार्य खुराक हो गयी हैं !
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गायों को कैसे होगा याद कि कब
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मनुष्यों ने अपनी युक्तियों से
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उन्हें पालतू बना लिया था
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(यह तथ्य तो बच्चों ही नहीं वयस्कों के
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निबंधों से भी ग़ायब रहता है !)
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गायें पहचानती हैं, तो उन खूँटों को जिनसे
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वे सदियों से बंधी हुई हैं
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इस चिर गुलामी से विद्रोह की तो
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वे सोचती भी नहीं होंगी
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वे अधिक से अधिक अच्छे व्यवहार का सोचती होंगी
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स्वच्छ जल
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हरे चारागाह का सोचती होंगी
 +
थोड़े खुले माहौल का सोचती होंगी
 +
हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों का उन्हें क्या पता
 +
किन्तु सहज ही हमारी तरह वे भी
 +
अपने जीने के अधिकार का सोचती होंगी !
 +
लेकिन
 +
गायों को क्या पता..!!
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18:15, 10 अप्रैल 2017 का अवतरण

गायें नहीं जानती कि
उनके लिए वेदों में क्या लिखा है
कि कितना पुराना है वह पुराण
जिसमें उनकी महिमा का बखान है
यह वेदपाठी पौराणिक ब्राह्मण जानते होंगे
मालूम होगा यह भेद प्राच्य-प्रकांड मैक्समूलर को
इसे जानने का दावा
आंबेडकर ने भी किया था : संदर्भ सहित !

गायें नहीं जानती
कि उनकी रक्षा व पालन के नाम पर
कितनी गौहंता समितियाँ व संस्थाएँ
सरकारी रजिस्टरों में दर्ज़ हैं
और कितनी लफंगों, दबंगों,
मुनाफाखोरों, अफसरों,
नेताओं के निजी रजिस्टरों में !
कि कितने हिन्दू उनके वैध वधिक हैं
और कितने ‘विधर्मियों’ के छुरों पर लगे लहू को
सरकारी जिह्वाएँ चाटती हैं !!

गायें नहीं पढ़ सकती भारत का संविधान
उन्हें नहीं पता कि इसकी
किसी अनुसूची में
किसी अनुच्छेद में
उनकी चिंता में भी कुछ लिखा गया है
यह आंबेडकर को पता था
जो गायों को पहचानते थे
इस तरह कि
वे मूक निरीह
ब्राह्मणों और शूद्रों में भेद करना नहीं जानती
वे जानते थे कि
पतित ब्राह्मणों के अहंकार के बूते
क्या ही बचाया जा सका है बेहतर
कि उनके पाखंड बचा पाएँगे गायों को !

उन्हें भरोसा था संविधान पर
और लोकतंत्र के
उत्तरोत्तर विकसित होते जाने वाले विवेक पर
कहाँ अंदाजा था उन्हें भी
कि देश के संविधान की प्रतियों की तहें लगाकर
उनके ऊपर सजाई जाएँगी सत्ता की गद्दियाँ
और माननीय न्यायालयों में संविधान की
वे प्रतियाँ रखवाई जाएँगी
जिनकी छपाई के वक्त
रोशनाई कम पड़ गयी थी !

क्या आखिरी दिनों में आंबेडकर को
इन्हीं बातों का तीव्र आभास होने लगा था ?
कहते हैं उन दिनों
उन्हें बुद्ध बेतरह ध्यान आते थे
मरने से पहले बौद्ध
और मरते हुए वे बुद्ध हो गये थे !!
यह महज संयोग नहीं था कि
समता और न्याय के लिए
उम्र भर लड़ने वाला आदमी
करुणा और संवेदना का सूत्र भी
हस्तांतरित कर गया था
(न जाने किन हाथों में !)

इतिहास बार बार दोहराता है कि
करुणा पर अपार विश्वास था
गाँधी का भी
जिन्हें गायों की ही नहीं
वधिकों की भी बराबर की फिक्र थी
जिन्हें विश्वास था कि बची रही मनुष्यता
तभी बचाया और हासिल किया जा सकेगा
कुछ भी शुभ
घोर आस्था थी उनकी उस कथा पर
जिसमें तथागत के महज़ कुछ सवालों से
काँप-काँप कर ढहने लगी थी
अंगुलीमाल की नृशंस मनोरचना !
कोई तूफान कोई भूकंप नहीं था
सिद्ध करुणा थी यह सिद्धार्थ की !

इतिहास की किताबों में शायद ही मिले
लेकिन इसी करुणा से आबद्ध प्राण तजते रहे
कलयुगी चरम पर भी
कई सज्जन साधु सन्यासी !

गायों ने तब भी करुणा का स्पर्श बहुत ही कम पाया
फिर भी बिचारियों ने सिर्फ सहना सीखा
कभी क्रोध नहीं दिखाया
छोड़कर अपवाद
बछड़ों के असुरक्षाबोध के क्षणों का!

गायों को क्या पता
कि वे सैकड़ों करोड़ों मनु संतानों की माएँ हैं
वे इतना ज़रूर जानती होंगी
कि जिनकी वे माएँ हैं
उनके हिस्से का दूध भी
उनसे छीन लिया जाता है !

गायों को नहीं पता कि
किसी अखलाक की हत्या का जिम्मेवार
उन्हें ठहराया जा चुका है
उन्हीं को बचाने के बहाने
उन्हीं की आड़ में
उन्हीं की खाल ओढ़कर
भय का दिग्विजय अभियान चलाया जा रहा है
सरेआम हत्यायें की जा रही हैं
और इस माहौल में
हत्यारों, हत्यारी सत्ता और व्यवस्था से नहीं
बल्कि उनसे तेज़ाबी घृणा
करने वालों की तादाद
बहुत बढ़ती जा रही है
कि वे बुद्धिजीवियों के प्रतिरोध
की अनिवार्य खुराक हो गयी हैं !
 
गायों को कैसे होगा याद कि कब
मनुष्यों ने अपनी युक्तियों से
उन्हें पालतू बना लिया था
(यह तथ्य तो बच्चों ही नहीं वयस्कों के
निबंधों से भी ग़ायब रहता है !)
गायें पहचानती हैं, तो उन खूँटों को जिनसे
वे सदियों से बंधी हुई हैं
इस चिर गुलामी से विद्रोह की तो
वे सोचती भी नहीं होंगी
वे अधिक से अधिक अच्छे व्यवहार का सोचती होंगी
स्वच्छ जल
हरे चारागाह का सोचती होंगी
थोड़े खुले माहौल का सोचती होंगी
हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों का उन्हें क्या पता
किन्तु सहज ही हमारी तरह वे भी
अपने जीने के अधिकार का सोचती होंगी !
लेकिन
गायों को क्या पता..!!