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"कुछ और दोहे / बनज कुमार ’बनज’" के अवतरणों में अंतर

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नहीं बढ़ाना चाहता, परछाईं पर बोझ।
 
नहीं बढ़ाना चाहता, परछाईं पर बोझ।
 
करता हूँ कम इसलिए, क़द अपना हर रोज़।।
 
करता हूँ कम इसलिए, क़द अपना हर रोज़।।
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फैल रहा है आजकल, घर-घर में ये रोग।
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क़द के खातिर कर रहे, एड़ी ऊंची लोग।।
 
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15:03, 18 जून 2017 का अवतरण

चोटिल पनघट हो गए, घायल हैं सब ताल।
अब पानी इस गाँव का, नहीं रहा वाचाल।।

भाई चारे से बना, गिरता देख मकान।
राजनीत के आ गई, चेहरे पर मुस्कान।।

बहुत ज़रूरी हो गया, इसे बताना साँच।
जगह-जगह फैला रहा वक़्त नुकीले काँच।।

सोच विचारों के जहाँ, गिरते कट कर हाथ।
हम ऐसे माहोल में भी, रहते हैं साथ।।

करता हूँ बाहर इसे, रोज़ पकड़ कर हाथ।
घर ले आता है समय, मगर उदासी साथ।।

मरने की फ़ुर्सत मुझे, मत देना भगवान्।
मुझे खोलने हैं कई ,अब भी रोशनदान।

नहीं बढ़ाना चाहता, परछाईं पर बोझ।
करता हूँ कम इसलिए, क़द अपना हर रोज़।।

फैल रहा है आजकल, घर-घर में ये रोग।
क़द के खातिर कर रहे, एड़ी ऊंची लोग।।