"वॉन गॉग की उर्सुला / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर
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10:14, 15 जून 2008 का अवतरण
क्या
हर प्यार करने वाले से
शादी करनी होगी मुझे
पूछती है-- उर्सुला
और भाग खड़ी होती है
विन्सेंट को पुकारती
लाल सिर वाला बेवकूफ़
सुबहें होती आई हैं
शबनम से नम
और आग से भरी हुईं
हमेशा से
और शामें
उदास-ख़ूबसूरत
ग़ुलाम हो चुकी भाषा के व्याकरण को
अपनी बेहिसाब जिरहों से लाजवाब करता
मिटटी की परतें तोड़
फेंकता अंकुर आज़ाद
कि ख़ब्तख़याली के
टकटकी बांधता, खिलखिलाता, भागता
बदहवास
बिखरती लटें संवारता, चुंबनों से
दुपट्टों से पसीना पोंछता
आता है प्यार -
चूजे-सा पर तोलता
भरता आशंकाओं से
कि उसकी रक्षा या हत्या को
आतुर हो उठते हम
कि बाज-बखत
खड़ी करनी चाहते दीवार
उसे बचाने की
दुनियावी जद्दो-जहद से
इससे गाफ़िल कि वह ख़ुद
एक बुलन्द निगाह है -
दरो-दीवार को भेदती - फिर
अन्तत: चूक कर
दुहराते हैं हम - प्यार
और दुश्वार करते हैं जीना
और टूटता है एक सपना
नींद में जागे का।
हर विंसेंट की
एक उर्सुला होती है
उसे दीवाना-मुँहफट-सिरफिरा कह
उसके मुँह पर किवाड़ भेड़ती
और होता है वह
एक विन्सेंट ही
ख़्याल को सनम समझता
ख़ुद को
ख़्याल से भी कम समझता
प्रतीज्ञाएँ करता-तोडता
महान मूर्खताओं से चिढ़ता-चिढ़ाता उन्हें मुँह
भटकाता ख़ुद को दर-ब-दर
रहने और खाने की व्यवस्था पर
अध्यापक मिल जाते हैं हमेशा से
और आज भी
फिर क्या चाहिए था विन्सेंट को
याद करने के पैसे तो नहीं लगते
यादें तो बस
जीवन मांगती हैं
एक निगाह में
एक बैठती आह में
बिखरता जीवन।
इजाडोरा कहती है -
प्रेम
शरीर की नहीं
आत्मा की बीमारी है
यह ज्वर
जला डालता है सारे कलुष
प्रेमी बन जाते हैं
योद्धा-पादरी-शिक्षक
यह ज्वर भर जाता है
आँखों में चमक
भाषा में खुनक
फिर तमाम विन्सेंटों के भीतर
उनकी उर्सुलाएं जाग पड़ती हैं
बोलने लगते हैं वो
महान प्रार्थनाएं प्रयाण-गीत पाठ
दुनिया के क्रूरतम तानाशाह भी
अपने भीतर समेटते रहते हैं
एक बिखरती उर्सुला
कभी-कभी ज्वर टूटता है
तब तक देर हो चुकी होती है
सच्ची जिदें
बदल चुकी होती हैं
झूठी सनकों में
उर्सुला को बचाने की ज़िद्द में वो
मार चुके होते हैं
अपने अंदर की उर्सुला को ही
जीवनानंद में नाचती
नीली आँखों का प्रकाश थी उर्सुला
विन्सेंट के लिए
उन कुछेक शामों-सुबहों की तरह
जो होते-बीतते
बैठ जाती हैं चुपके से भीतर
फिर जब दुनिया का मायावी प्रकाश
चौंधियाता है हमें
तो खो जाते हैं हम
कहीं भीतर दुबके
प्रकाश-पल की तलाश में
टिमटिमाता रहता है जो-- अविच्छिन्न
एक टीस की तरह
कि उन प्रकाश-पलों को फिर-फिर
बदला नहीं जा सकता
सुबहों व शामों के प्रकाशवृत्तों में
विन्सेंट याद करता है-- ईसा को
कि हरेक चीज़ मिल जाती है
किसी भी क़िताब से
ज़्यादा सम्पूर्ण और सुन्दर रूप में
कि कोई भी दुख
बिना उम्मीद के नहीं आता
हाँ
सचमुच की उर्सुला जब
खो जाती है कहीं
ज़िन्दगी की क़िताब में
तब
जीवित होने लगती है वह
विन्सेंट के लहू में-
निगाह में उसकी
उसके इशारों में-
फिर-फिर
रची जा रही होती है वह कैनवसों पर
मिथ्या आवरणों के भीतर
अपने मूल से भी
खरे रूप में।