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"प्रतीक्षा-गीत / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ। | यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ। | ||
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23:52, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
हर किसी के भीतर
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे।
पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत
जिसे मैने बार बार जाग कर गाया है
जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।
उसी को तो आज भी गाता हूँ
क्यों कि चौंक- चौंक कर रोज़
तुम्हें नया पहचानता हूँ-
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ।