भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"भीम बैठका की नील दोपहर / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पूनम अरोड़ा 'श्री श्री' |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
हम अपने में इतने स्पष्ट थे
 
हम अपने में इतने स्पष्ट थे
 
कि मौन थे.
 
कि मौन थे.
हमारी कविताएं हमारे पूर्व की स्मृतियाँ थीं.
+
हमारी कविताएँ हमारे पूर्व की स्मृतियाँ थीं.
  
 
यह मैंने भीम बैठका की गुफाओं में  
 
यह मैंने भीम बैठका की गुफाओं में  
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
 
सब कुछ सुनने की लालसा में  
 
सब कुछ सुनने की लालसा में  
 
धीरे-धीरे फैल रहा था.
 
धीरे-धीरे फैल रहा था.
वहीं कुछ स्पष्ट आवाज़े भी थीं.
+
वहीं कुछ स्पष्ट आवाज़ें भी थीं.
 
पीले शिखरों से टकराकर मुझ तक लौट आ रही थीं.
 
पीले शिखरों से टकराकर मुझ तक लौट आ रही थीं.
  

17:39, 20 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

हम अपने में इतने स्पष्ट थे
कि मौन थे.
हमारी कविताएँ हमारे पूर्व की स्मृतियाँ थीं.

यह मैंने भीम बैठका की गुफाओं में
एक कवि के साथ चलते हुए महसूस किया.

कहीं विरक्त आकाश का अशांत टुकड़ा था.
तो कहीं लंबी घास में छुपी छोटी तितलियाँ और पतंगे.

सब कुछ सुनने की लालसा में
धीरे-धीरे फैल रहा था.
वहीं कुछ स्पष्ट आवाज़ें भी थीं.
पीले शिखरों से टकराकर मुझ तक लौट आ रही थीं.

मुझे आश्चर्य तो नहीं था.
इस असीम नील दोपहर में
एक कवि के साथ होने का.
हाँ, सुख की उष्ण पीली किरणें मेरे साथ थीं हर क्षण.

तब मैंने जाना
कि हर लगाव उतना ही विशाल हृदय का होता है
जितना कभी हम हो जाते हैं
अपनी कविता के प्रति क्षमाशील.

वह कवि था या कोई और
उत्तर किसे तलाशना है अब?