"हम देह पर धारते रहे, हथकरघे पर बुना कोमल मन / सुरेश चंद्रा" के अवतरणों में अंतर
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− | उन कस्बों | + | उन कस्बों में |
कठपुतलियों को नाचते-गाते देखते सुनते, हम पले-बढ़े | कठपुतलियों को नाचते-गाते देखते सुनते, हम पले-बढ़े | ||
हमने किसी डोर, अदृश्य कंठों और वाद्यों को कभी नहीं ढूंढा | हमने किसी डोर, अदृश्य कंठों और वाद्यों को कभी नहीं ढूंढा | ||
− | हम देखते रहे, एक समूचा संसार, बाइस्कोप | + | हम देखते रहे, एक समूचा संसार, बाइस्कोप में सिमटा हुआ |
− | कभी नहीं | + | कभी नहीं ढूँढे, कोई प्रमाण, साक्ष्य हमने, उसके मानचित्र पर |
हम शब्दों का मर्म, सूत-सूत कातते रहे | हम शब्दों का मर्म, सूत-सूत कातते रहे | ||
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हमने नहीं साधा कभी, किसी ऋतु पर संधान | हमने नहीं साधा कभी, किसी ऋतु पर संधान | ||
− | हम | + | हम में बादलों की थिरकन पर, थिरकता रहा नृत्य |
− | पावस और पत्तों की सरसरहाट से हम | + | पावस और पत्तों की सरसरहाट से हम में रचते रहे संगीत |
− | हम सूरज को पश्चिम | + | हम सूरज को पश्चिम में कटती पतंग समझते रहे |
ले आते रहे पेड़ पर अटका चाँद, रात को लूट कर | ले आते रहे पेड़ पर अटका चाँद, रात को लूट कर | ||
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हम देह पर धारते रहे, हथकरघे पर बुना कोमल मन | हम देह पर धारते रहे, हथकरघे पर बुना कोमल मन | ||
− | एक | + | एक ज़रा सी खोंच पर, जो |
सिलाई-सिलाई उधड़ जाता | सिलाई-सिलाई उधड़ जाता | ||
हमारी आँखों ने अस्वीकार दिया, कुछ भी अनचाहा | हमारी आँखों ने अस्वीकार दिया, कुछ भी अनचाहा | ||
− | उन कस्बों | + | उन कस्बों में, हम मीठी नींद तान कर सोते |
हम नहीं जागना चाहते अब, किसी अजानी शैय्या पर | हम नहीं जागना चाहते अब, किसी अजानी शैय्या पर | ||
हम अब नहीं जानना चाहते, मानना कुछ भी | हम अब नहीं जानना चाहते, मानना कुछ भी | ||
− | हम नहीं पहचानते जिसे, हम नहीं-नहीं पहचानते | + | हम नहीं पहचानते जिसे, हम नहीं-नहीं पहचानते. |
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13:04, 20 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
उन कस्बों में
कठपुतलियों को नाचते-गाते देखते सुनते, हम पले-बढ़े
हमने किसी डोर, अदृश्य कंठों और वाद्यों को कभी नहीं ढूंढा
हम देखते रहे, एक समूचा संसार, बाइस्कोप में सिमटा हुआ
कभी नहीं ढूँढे, कोई प्रमाण, साक्ष्य हमने, उसके मानचित्र पर
हम शब्दों का मर्म, सूत-सूत कातते रहे
बुनते रहे, सहूलियत से, स्व-धर्म
नंगी वास्तविकता को भ्रम पहनाते हुए
हमने नहीं साधा कभी, किसी ऋतु पर संधान
हम में बादलों की थिरकन पर, थिरकता रहा नृत्य
पावस और पत्तों की सरसरहाट से हम में रचते रहे संगीत
हम सूरज को पश्चिम में कटती पतंग समझते रहे
ले आते रहे पेड़ पर अटका चाँद, रात को लूट कर
हम तारों से दिशा का संज्ञान करते रहे
और राहों से अनभिज्ञ, अंजान रहे
हमने स्वप्नों को कभी जटिल नहीं होने दिया
ना अपने किसी भी स्वांग को कुटिल
हम देह पर धारते रहे, हथकरघे पर बुना कोमल मन
एक ज़रा सी खोंच पर, जो
सिलाई-सिलाई उधड़ जाता
हमारी आँखों ने अस्वीकार दिया, कुछ भी अनचाहा
उन कस्बों में, हम मीठी नींद तान कर सोते
हम नहीं जागना चाहते अब, किसी अजानी शैय्या पर
हम अब नहीं जानना चाहते, मानना कुछ भी
हम नहीं पहचानते जिसे, हम नहीं-नहीं पहचानते.