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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=कुमार मुकुल
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− | |संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
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− | मैं जब भी उसकी आँखों में देखता
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− | मेरे बालों में फिरते उसके हाथ मेरी आँखें
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− | ढक लेते
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− | मैं अपने हाथ उसकी हथेली पर रख देता
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− | और मेरा देखना जारी रहता
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− | इसी तरह मैं सपनों की दुनिया में चला जाता
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− | और फिर गहरी नींद में
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− | और जगता तो लगता कि जैसे सुबह हुई हो
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− | धीरे-धीरे मैं अपनी आँखें खोलता
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− | तो देखता वह पास बैठी है और उसकी
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− | आँखों से
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− | शीतल प्रकाश वैसा ही झर रहा है
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− | जिसकी स्निग्धता में डूबी दोपहरी
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− | सुबह में बदल रही है
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− | इसी तरह शाम हो जाती फिर रात व सुबह
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− | अब वह कहीं भी होती
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− | स्निग्धता की लहर में मैं डूबा रहता
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− | लॉन में हम चार-पांच जन टहलते रहते
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− | कोई बात निकलती
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− | सब समझते कि बात क्या है इससे पहले ही
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− | वह हँसती हुई
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− | मुझ पर दोहरी हो जाती
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− | मेरे अहम का प्रस्तर कवच धसकता हुआ
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− | उसके आवेगों का वस्त्र बन जाता
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− | मेरी अस्थिमज्जा में स्नेह का द्रव सुरसुराने
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− | लगता
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− | और अपनी एक बाँह से मैं उसे थम लेता
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− | वह क्या अनुभव करती थी
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− | इसे कौन जान सकता है
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− | अक्सर हम बहुत पास होते
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− | कभी-कभी मैं उसका हाथ चूमने की
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− | कोशिश करता
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− | पर चूमते-चूमते रह जाता
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− | वह कितने पास थी
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− | उसका हाथ जैसे मेरा ही हाथ था
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− | लगता
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− | अपना हाथ भी क्या चूमा जाता है
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− | एक बार उसने पूछा मैं मर जाऊँ
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− | तो आप क्या करेंगे
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− | तुम्हारे बनाए गुलाबों को देख जिऊंगा -
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− | बोलते हुए लगा - उसके बनाए गुलाब
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− | और वह
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− | अपनी रचनाओं में और प्रतिकृतियों में
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− | कितना आ पाता है आदमी
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− | कितना है मेरा बेटा सामने लटकी तस्वीर में
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− | क्या उससे बाहर आकर
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− | मेरे कान उमेठ सकता है वह
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− | या मेरी गरदन दबाते हुए
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− | मेरी निकलती जीभ को देख
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− | और घुरघुराहट को सुन खुश हो सकता है
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− | अपने जीते-जागते बन्दों में कितना है ईश्वर
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− | और बन्दों में ही जब नहीं आ पाता है वह
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− | तो बन्दों की बनाई मूर्तियां में
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− | कितना आ पाता होगा ?
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− | यह सब सोचता घबरा गया मैं
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− | मैंने पूछा - मानिनी
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− | तैंतीस की इस उमर में
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− | बाल तो मेरे सफेद हो चुके हैं
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− | मरने की मेरी गुंजाइश ज़्यादा है
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− | इस पर घबरा गई वह
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− | मेरा हाथ दबाते बोली
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− | नहीं, आप नहीं मर सकते -
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− | नहीं मर सकते आप
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− | मैं हँसा-- कैसे मर सकता हँ मैं भला -
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− | वह जब पड़ोस में निकलती
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− | तो बेला के फूल ले आती
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− | आपको पसंद हैं ना - पर तुमसे ज़्यादा नहीं
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− | नहीं, भागती नहीं थी वह शरमाकर
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− | शरमाती तो थी ही नहीं वह
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− | (अपने आप से शरमाना, कितना बड़ा धोखा है -बोलती वह)
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− | बल्कि पास ही बैठ जाती दुखी-सी
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− | अपनी कामनाओं के लिए तब ख़ुद को
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− | प्रताडि़त करता मैं
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− | और फूलों को छुपा देता क़िताबों में
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− | जैसे उसे ही छुपा रहा होऊँ
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− | पर सुबह देखता तो वह वहाँ नहीं होती
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− | फूल-भद्दे, काले पड़ गए होते
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− | और अपनी करनी पर
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− | मैं पछता रहा होता
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− | वह जब भी बरतन मांज रही होती
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− | उसकी पीठ मेरी ओर होती
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− | मैं जानता था, उसकी आँखें
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− | अभी पीठ में उगी हैं
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− | उसके हाथ बरतन को
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− | विचित्र तरीके से घिस रहे होते
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− | जैसे उस गंदले जल में
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− | मेरा चेहरा आ-जा रहा हो
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− | तब मैं राय देता कि ऐसा करो
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− | कुछ पत्तलें और काग़ज़ की प्लेटें
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− | मंगवा लिया करो
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− | ब्याह का घर है,
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− | काम बढ़ जाता है कितना ?
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− | फिर तो तमक जाती वह
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− | जाइए यहाँ से -
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− | चले जाइए एकदम
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− | मैं पानी से भरा जग उठाता
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− | कि लाओ मदद कर दूँ
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− | फिर तो बिफ़र जाती वह - जाते हैं
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− | कि दूँ पोत
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− | फिर अपना चेहरा उठाए मैं बाहर आ जाता
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− | और देखता
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− | दो मिनट में काम निबटाकर
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− | वह बाहर आ गई है
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− | और उसकी पलकें भीगी हैं
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− | मैं पूछता, रो रही है क्या मानिनी ?
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− | और हँस देती वह झन्न से -
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− | और मैं भाग खड़ा होता - आखिर पकड़ाता
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− | और वह गले से लगी हाँफ रही होती
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− | उससे मेरा रिश्ता ही मज़ाक का थ
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− | पर मज़ाक वह कम ही करती थी
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− | वह भी रिश्ते को निबाहने की मज़बूरी में
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− | जैसे, लोग क्या कहेंगे ?
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− | पर हर मज़ाक के बाद
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− | वह दुखी हो जाती
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− | मैं उसे झूठ-मूठ का डराता और वह
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− | वास्तव में डर जाती
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− | और कहीं छिप जाती
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− | फिर मैं भी उसे इस तरह खोजता
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− | कि वह नहीं ही मिलती
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− | तब वह सामने आकर बैठ जाती
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− | मैं सोचता, अब तो पकड़ी गई -
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− | पर हैरान रह जाता - कि अपने पाँव -
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− | उसने किस तरह
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− | अपनी आँखों में छुपा रखे हैं
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− | मैं हार जाता और कहता
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− | कि अबरी माफ़ किया
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− | एक दिन मौसी ने कहा
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− | कि बहुत मज़बूत है मानिनी
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− | पंजा लड़ाने में अपने भाइयों को भी
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− | हरा देती है
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− | मैंने भी पंजा लड़ाया और हार गया
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− | और ख़ूब ढिंढोरा पीटा - कि मैं तो हार गया
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− | पर वह दुखी हो गई कि ऐसी जीत
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− | उसे पसंद नहीं
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− | मेरे ज्ञान पर वह अक्सर
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− | आश्चर्य व्यक्त करती
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− | और पूछती -
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− | फिर आप ऐसी मूर्खताएँ क्यों करते हैं !
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− | जैसे कि मझे अनुपमा कहते हैं -
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− | या ऐसी ही फालतू बातें
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− | मैं बोलता कि मानिनी लाओ मैं तेरे बाल
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− | गँथ दूँ
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− | और उसे गौरी फिल्म की याद दिलाता -
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− | वह चिढ़ जाती -
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− | मुझे अंधी समझ रखा है क्या ?
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− | लाइए अपना सिर -इधर -
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− | और अपनी आँखें बन्द कीजिए
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− | ......................
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− | .......................
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− | ........................
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− | पाँच वर्षों बाद मिले हम
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− | हमारी कोशिश रहती कि हम पास रहें
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− | पर जब वह पास आती
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− | तो मैं कहीं खो जाता
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− | वह टोकती
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− | मुझे बिठाकर ख़ुद -
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− | मैं अकचकाता-- अरे हाँ -
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− | मैं तो वर्षों से उससे मिलना
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− | बातें करना चाहता था
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− | ढेर सी
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− | फिर मैं कहाँ खो गया -
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− | वह उसकी
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− | प्रतिकृति तो नहीं
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− | जो स्मृतियों में रहते-रहते
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− | ऐसी जीवित हो गई है
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− | कि उसकी सजीव
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− | उपस्थिति में भी
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− | मेरा ध्यान खींच ले रही है -
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− | तो क्या यही रचना है - सच्ची रचना
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− | क्या इसी तरह आदमी ने रचा होगा ईश्वर को भी
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− | अपने मूल से भी सच्चे व खरे रूप में
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− | - तो क्या मानिनी
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− | केवल अपने माता-पिता की प्रतिकृति है
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− | और उसका जीवन उसके समय की रचना है
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− | जिसमें प्रकृति है और मैं हूँ
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− | और मेरे जैसे कितने ही रचनाकार हैं
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− | - तो क्या माता-पिता की मानिनी
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− | वह नहीं है
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− | जो अपने सहेलियों की है
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− | या जो अपने भाइयों की है
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− | वह मानिनी मेरी नहीं है
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− | क्या मेरी मानिनी मेरी आकांक्षाओं का स्वरूप है
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− | या उसमें मानिनी की भी
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− | आकांक्षाएँ हैं
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− | और यही उसे
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− | दूसरों की मानिनी से अलग करते हैं।
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