भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"झीलें है सूखी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 41: | पंक्ति 41: | ||
दर-दर जा छाया | दर-दर जा छाया | ||
गोद हो गई सूनी। | गोद हो गई सूनी। | ||
+ | 51 | ||
+ | पीड़ा थी भारी | ||
+ | तुम खिलखिलाई | ||
+ | फिर फूटी रुलाई | ||
+ | न रोके रुकी | ||
+ | बरसाती नदी-सी | ||
+ | धैर्य-तटबंध टूटे। | ||
+ | (13-8-18) | ||
</poem> | </poem> |
21:46, 17 अगस्त 2018 के समय का अवतरण
46
बेरुखी तोड़े
सारे प्यारे सम्बन्ध
जीवन-अनुबन्ध,
जब अपने
चोट दे मुस्कुराएँ
किसे दर्द बताएँ?
47
तपती शिला
निर्वसन पहाड़
कट गए जंगल
न जाने कहाँ
दुबकी जलधारा
खग-मृग भटके.
48
झीलें है सूखी
मिला दाना न पानी
चिड़िया है भटकी
आँखें हैं नम
लुट गया आँगन
साँसें भी हैं अटकी।
49
घाटी भिगोते
रहे घन जितने
वे परदेस गए
रूठ गए वे
निर्मोही प्रीतम-से
हुए कहीं ओझल।
50
छाती चूर की
चट्टानों की भी ऐसे
पीड़ा दहल गई.
विलाप करे
दर-दर जा छाया
गोद हो गई सूनी।
51
पीड़ा थी भारी
तुम खिलखिलाई
फिर फूटी रुलाई
न रोके रुकी
बरसाती नदी-सी
धैर्य-तटबंध टूटे।
(13-8-18)