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और इस बात पर भीग जातीं, 'बाल-बचवा सब, अबहीं बहुत ही छोटहन, न रहने | और इस बात पर भीग जातीं, 'बाल-बचवा सब, अबहीं बहुत ही छोटहन, न रहने |
17:17, 2 मार्च 2018 के समय का अवतरण
गाँव की कोई न कोई
मेहरारू आती ही रहती, माई से कुछ कहती-सुनती
और इस बात पर भीग जातीं, 'बाल-बचवा सब, अबहीं बहुत ही छोटहन, न रहने
पर, इनकी आजी, अकेले कैसे सँभालेंगी', तब समझ नहीं पाता था, माई को का
हो गया है, लेकिन भीगते, माई को ही देखता, और बतियानेवाली को
आजी या और किसी को धीर बँधाते, तब मैं भी आजी
की देखा-देखी समझाता, 'देखो, ठीक
हो जाओगी, रोओ मत'
लेकिन एक दिन घर के पिछूती
अकेले में, मुँह पर लूगा रख, आजी को डहकते देखा, बूझ गया
माई अब साँचो, मू जाएगी, नाहीं तो आजी 'बछिया...बछिया' कह नाहीं रोती, ऊ तो कवनो दुःख
हो, कहती है, 'नतिया को झाड़ू से बुहार के फेंक आऊँगी', ई कवनो बड़का दुःख है, फिर तो अब
जब कबहुँ माई भीगती, मैं भी फूट पड़ता, मिट्ठू से कहता, 'देखो, कटोरे-कटोरे हर घरी
दूँगा, माई को ठीक कर दो', गइया से कहता, भइंसिया-बैला से कहता, एक
मुट्ठी चाउर ले, बगीचे में जाता और छींट देता, आतीं जो
चिरइंयाँ, उनसे भी कहता, 'माई को ठीक
कर दो, रोज चाउर दूँगा'
बाबा कहते थे, 'पेड़ को रोज़
अँकवारी में भरो, ऊ सूखता नाहीं', मैं माई को रोज़ अँकवारी
में भरता, माई कबहुँ-कबहुँ बिछोह में पकड़े रो पड़ती, माई जिन भगवान लोगों की, पूजा किए
बिना रोटी नहीं तोड़ती थी, उनसे भी कहता, 'माई को ठीक कर दो', तबहुँ सब अनर्थ, एक दिन
कोठारी में बाबूजी की भी आँखें, डूबती-उतराती देखीं, धक् से रह गया, बाबूजी
को ऐसा पहली बार देखा था, अब मेरे लिए कुछुओ बूझना बाक़ी
नहीं रह गया था, तब आजी से कहा, 'आपन सब
पइसा किसको दे दिया, केहू से
माँग लाओ अब'
'बेेेटा, अब तो माँगने पर
करजा भी नाहीं मिल रहा, तेरा बाप जो किसी की
दुआरी नाहीं जाता, ऊ भी किसके पास हाथ नाहीं पसारा', कि एक दिन मामा, पैैसे
का जुगाड़ कर लाए, ऑपरेशन हुआ, और माई छोड़ के कहीं न गई, मुझे याद है ऊ
दिन, कि जो आजी अपने पोतों के जनमने पर, भले ख़ुश होती थी, पर
कबहुँ छीपा नहीं बजाती थी, ऊ आजी, आँगन क्या, दुआर
तक घंटों छीपा बजाती रही कि 'कोखिया
ले गया, बाकी हार गया
मुदइया
कैंसरवा हार गया !'