"उधो, मोहि ब्रज / वीरेन डंगवाल" के अवतरणों में अंतर
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+ | आपन-आपन बालू के खेत | ||
+ | कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ | ||
+ | सिगरे बस रेत ही रेत। | ||
+ | अनवरसीटी हिरानी हे भइया | ||
+ | हेराना सटेसन परयाग | ||
+ | जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा | ||
+ | किन बैरन लगाई ई आग। | ||
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− | + | वह कहवाघर! | |
− | + | जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थी | |
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− | + | दोसे महान | |
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− | + | छंगू पनवाड़ी शानदार | |
− | + | अद्भुत उधार। | |
− | + | दोस्त निश्छल। विद्वेषहीन | |
+ | जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल | ||
+ | सकल प्रेम | ||
+ | ज्ञान सकल। | ||
+ | अधपकी निमौली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला | ||
+ | चिपचिपा प्यार | ||
+ | वे पेड़ नीम के ठण्डे | ||
+ | चित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर | ||
+ | गोंद में सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार | ||
+ | काफ़ी ऊपर तक | ||
+ | इन्हीं तनों से टिका देते थे हम | ||
+ | बिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल। | ||
+ | सड़कें वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर | ||
+ | अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गन्ध | ||
+ | धीमे-धीमे से डग भरता हुआ अक्टूबर | ||
+ | गोया फ़िराक़। | ||
+ | कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे ग़ुलाब | ||
+ | जिन पर तिरछी आ जाया करती थी बहार | ||
+ | वह लोकनाथ की गली गाढ़ लस्सी वाली | ||
+ | वे तुर्श समोसे मिर्ची का मीठा अचार | ||
+ | सब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता जाता हूँ। | ||
− | + | अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील | |
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− | + | नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार | |
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22:34, 21 जून 2010 का अवतरण
गोड़ रहीं माई ओ मउसी ऊ देखौ
आपन-आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ
सिगरे बस रेत ही रेत।
अनवरसीटी हिरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई ई आग।
वो जोशभरे नारे वह गुत्थमगुत्था बहसों की
वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सल
वह कहवाघर!
जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थी
हम कंगलों को
दोसे महान
जीवन में पहली बार चखा जो हैम्बरगर।
छंगू पनवाड़ी शानदार
अद्भुत उधार।
दोस्त निश्छल। विद्वेषहीन
जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल
सकल प्रेम
ज्ञान सकल।
अधपकी निमौली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला
चिपचिपा प्यार
वे पेड़ नीम के ठण्डे
चित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर
गोंद में सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार
काफ़ी ऊपर तक
इन्हीं तनों से टिका देते थे हम
बिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल।
सड़कें वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर
अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गन्ध
धीमे-धीमे से डग भरता हुआ अक्टूबर
गोया फ़िराक़।
कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे ग़ुलाब
जिन पर तिरछी आ जाया करती थी बहार
वह लोकनाथ की गली गाढ़ लस्सी वाली
वे तुर्श समोसे मिर्ची का मीठा अचार
सब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता जाता हूँ।
अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील
या नर्सिंग होम, नये युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील
नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार
खग कूजन भी हो रहा लीन!
अब बोल यार बस बहुत हुआ
कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार!
कुर्ते पर पहिने जीन्स जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं।