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"द्रोण मेघ / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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मुझे फर्क नहीं पड़ता
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सरकारी फरमान पर खानापूरी करते
+
 
टीन के शेड
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कई दिन हुए
जलती लकडिय़ों की ठंडी पड़ी राख कुरेद कुरेदकर
+
नदी तालाब का पानी जम गया है
आग की गर्मी को ढूंढते पाते
+
पांव ठीक से रखना ... संभालकर
मैलै कुचैले लत्तर से स्वयं को ढ़कने का
+
जोर की फिसलन है ज़रा अदब से चलो
अनावश्यक प्रयास करते असक्त बूढ़े को देखकर
+
पता है? थोड़े दिन पहले
कोई स्पंदन नहीं
+
यहाँ किनारे हुआ करते थे  
एकदम शांत
+
शहर से थोड़ी दूर तो थी ये जगह
कोने में पड़े पुआल के ढ़ेर में
+
मगर यहाँ हर घड़ी
किसी मड़ियल-सी कुतिया ने जने तो थे छः सात बच्चे
+
सुरीली आवाज चटखती रहती थी  
किंतु दो ही स्तनपान को बचे हैं अब
+
अद्भुत जीवन हुआ करता था बहते पानी में  
सहमी-सी लेटी है  
+
जमी है जब से कब्र—सी लगती है मुझे
कभी भी आक्रामक होते नहीं देखा
+
अभी जूते पहन
तब भी जब सियार ने
+
कितने आराम से चल रहे हो तुम
उसके सामने ही झपट लिए थे दो
+
याद होता जो तब का मंज़र
व्याकुल हुई थी
+
पांव धरते ही रोएँ सिहर जाते
रोई चिल्लाई भी थी
+
तब के उलट सबकुछ बदला-बदला-सा है इस दम
उपवास में चली गई थी दो एक दिन
+
बहुत ज़रूरी हो
किंतु अब शांत बैठी है
+
तो ही कोई घर से निकलता है  
वहीं कोने में टकटकी लगाए
+
रोशनी आकाश से छन नहीं पाती
आशावान है  
+
घिरे बादल से चिपट जाती है  
उष्मारहित हो चुकी राख से ऊबकर उठेगा वो
+
शफ्फाक-सी उड़ती है बरफ़ हवा के साथ
तो ही वह जा सकती है वहाँ बच्चों समेत
+
जब आनंद से नाचते गाते हो तुमलोग
ट्रेन का इंतजार अभी और करना है
+
परिंदे ताकते हैं वीराने को  
(धुंध की वजह से रोजाना ही लेट रहती है)
+
सफेद चादर बिछी है चारों तरफ मैदान पूरा खाली है  
(खैर मुझे फर्क नहीं पड़ता)
+
क्या तुम्हें डर नहीं लगता?  
हाँ कल की मीटिंग की थोड़ी चिंता है
+
उठते हो रात-बिरात
दिसम्बर के आसपास
+
नकाब ओढ़े हुए देखते हो
अक्सर ही ट्रेनें लेट हो जाती हैं
+
बरफ का गिरना
कई सारे शेड बने हैं प्लेटफार्म पर इन दिनों
+
सिकुड़ के बैठा है अबाबील उस सनोबर पर
किंतु ये वाला मेरा पसंदीदा है
+
हवा जब जोर से बहती तो कुनमुनाता है  
यहाँ कोई भद्रजन कभी नहीं बैठता
+
सजा-सी है चार दिन बीत चुके हैं
कंगला कुतिया और कभी-कभी मैं
+
आंखें नम हैं उसकी पेट खाली है  
बहुत थोड़ा-सा फर्क इसलिए है कि
+
मेरे पास हैं कपड़े जूते
+
मोबाइल और पावरबैंक भी
+
रम की छोटी बोतल से दो घूंट गटक
+
सिगरेट जला ली है मैंने
+
उंगलियाँ बड़ी फास्ट हैं मेरी स्क्रीन पर
+
अनलॉक होते ही
+
सर्र से चली जाती है न्यूजडेस्क पर
+
जहाँ जारी रहती है बहस हमेशा इन दिनों
+
प्रधानमंत्री के दावों
+
और दावों की हवा निकालते विपक्ष के बीच
+
गरमागरम गालियाँ
+
घुप्प अंधेरे को चीरती
+
स्क्रीन से निकलती रोशनी
+
और ऊबकाई से थका थका-सा मैं
+
हरा कैसे होऊँ?
+
अचानक से पास करती है थ्रू गाड़ी रपारप
+
सन्नाटे को चूर
+
धूल और हवा के अनियंत्रित बवंडर हिलोरती
+
छुक छुक और क्रां-क्रां का नाद करती
+
इस धड़धड़ाहट में
+
क्यों समझ नहीं पाया मैं
+
किकियाती कुतिया की आवाज?  
+
रात का सन्नाटा
+
सिर्फ आराम के लिए नहीं होता
+
शिकारी के लिए स्निग्ध आमंत्रण भी तो है
+
झाड़ियों की सुगबुगाहट
+
और मद्धम पड़ती चीख को
+
गर्दन ऊँची कर छटपटाते हुए
+
देखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है उसके पास
+
कातर भाव से  
+
पूंछ हिला हिलाकर ताकती है मेरी तरफ
+
स्क्रीन पर जारी है  
+
महान बहस भ्रष्टाचार को लेकर
+
मैं कंगला और कुतिया
+
खामोश बैठे हैं शेड में
+
अपने एकमात्र बचे बच्चे को
+
जीभ से चाटकर
+
स्वयं को सांत्वना देती
+
अपने बच्चे में "तुम सुरक्षित हो मेरे रहते"
+
का भ्रम पैदा करती माँ को देख रहा हूँ मैं
+
भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ़
+
वित्तीय गड़बडिय़ां ही नहीं होती
+
इतनी नैतिकता को कौन सुने?
+
क्योंकि यह देश बदल रहा है
+
और दिल्ली में क्रांति जारी है  
+
 
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18:12, 12 मई 2018 का अवतरण



कई दिन हुए
नदी तालाब का पानी जम गया है
पांव ठीक से रखना ... संभालकर
जोर की फिसलन है ज़रा अदब से चलो
पता है? थोड़े दिन पहले
यहाँ किनारे हुआ करते थे
शहर से थोड़ी दूर तो थी ये जगह
मगर यहाँ हर घड़ी
सुरीली आवाज चटखती रहती थी
अद्भुत जीवन हुआ करता था बहते पानी में
जमी है जब से कब्र—सी लगती है मुझे
अभी जूते पहन
कितने आराम से चल रहे हो तुम
याद होता जो तब का मंज़र
पांव धरते ही रोएँ सिहर जाते
तब के उलट सबकुछ बदला-बदला-सा है इस दम
बहुत ज़रूरी हो
तो ही कोई घर से निकलता है
रोशनी आकाश से छन नहीं पाती
घिरे बादल से चिपट जाती है
शफ्फाक-सी उड़ती है बरफ़ हवा के साथ
जब आनंद से नाचते गाते हो तुमलोग
परिंदे ताकते हैं वीराने को
सफेद चादर बिछी है चारों तरफ मैदान पूरा खाली है
क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
उठते हो रात-बिरात
नकाब ओढ़े हुए देखते हो
बरफ का गिरना
सिकुड़ के बैठा है अबाबील उस सनोबर पर
हवा जब जोर से बहती तो कुनमुनाता है
सजा-सी है चार दिन बीत चुके हैं
आंखें नम हैं उसकी पेट खाली है