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"खूब रचेगी / भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर
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+ | भाता नहीं क्यों | ||
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+ | मेरा वो वज़ूद कि | ||
+ | उठ ना सकूँ | ||
+ | दोबारा से कलम। | ||
+ | खोद रहे हैं | ||
+ | जड़ों को मेरी अब | ||
+ | लगा दिया है | ||
+ | घुन मेरी सोचों में | ||
+ | टूटकर मैं | ||
+ | हो जाती चूर-चूर | ||
+ | न साथ देता | ||
+ | अगर मेरा साथी | ||
+ | न ही बढ़ाता | ||
+ | लगातार हौसला | ||
+ | न पूरा होता | ||
+ | लेखन का काफ़िला | ||
+ | बहुत हुआ | ||
+ | अब नहीं रुकेगी | ||
+ | कभी लेखनी | ||
+ | और आगे बढ़ेगी | ||
+ | खूब रचेगी | ||
+ | षड़यन्त्रों के हत्थे | ||
+ | बिल्कुल न चढ़ेगी। | ||
+ | -०- | ||
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18:23, 18 जुलाई 2018 के समय का अवतरण
होती हूँ रोज
अपमानित और
तिरस्कृत भी।
चलाती हूँ कलम
भावों में डुबो।
अक्सर रहती हूँ
मौन ही मैं तो
है बोलती कलम।
भाता नहीं क्यों
आगे बढ़ना मेरा?
क्यों मिटाते हैं
मेरा वो वज़ूद कि
उठ ना सकूँ
दोबारा से कलम।
खोद रहे हैं
जड़ों को मेरी अब
लगा दिया है
घुन मेरी सोचों में
टूटकर मैं
हो जाती चूर-चूर
न साथ देता
अगर मेरा साथी
न ही बढ़ाता
लगातार हौसला
न पूरा होता
लेखन का काफ़िला
बहुत हुआ
अब नहीं रुकेगी
कभी लेखनी
और आगे बढ़ेगी
खूब रचेगी
षड़यन्त्रों के हत्थे
बिल्कुल न चढ़ेगी।
-०-