"अतिचार / महेन्द्र भटनागर" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=राग-संवेदन / महेन्द्र भटनागर }}...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
| पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
| − | + | अर्थहीन हो जाता है <br> | |
| − | + | सहसा <br> | |
| − | + | चिर-संबंधें का विश्वास _ <br> | |
| − | + | नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास! <br> | |
| − | + | अरे, क्षण-भर में <br> | |
| − | + | मिट जाता है <br> | |
| − | + | वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत <br> | |
| − | + | अपनेपन का अहसास! <br> | |
| − | + | ताश के पत्तों जैसा <br> | |
| − | + | बाँध टूटता है जब <br> | |
| − | + | मर्यादा का, <br> | |
| − | + | स्वनिर्मित सीमाओं को<br> | |
| − | + | आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार<br> | |
| − | + | तब बन जाते हैं<br> | |
| − | + | निर्जीव अचानक! <br> | |
| − | + | लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ, <br> | |
| − | + | छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं<br> | |
| − | + | स्थिर पैर, <br> | |
| − | + | डगमगाते काँपते हुए <br> | |
| − | + | स्थिर पैर! <br> | |
| + | भंग हो जाती है<br> | ||
| + | शुद्व उपासना<br> | ||
| + | कठिन सिद्व साधना! <br> | ||
| + | धर्म-विहित कर्म<br> | ||
| + | खोखले हो जाते हैं, <br> | ||
| + | तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ<br> | ||
| + | झुठलाती हैं।<br> | ||
| + | बेमानी हो जाते हैं<br> | ||
| + | वचन-वायदे! <br> | ||
| + | और _<br> | ||
| + | प्यार बन जाता है<br> | ||
| + | निपट स्वार्थ का समानार्थक! <br> | ||
| + | अभिप्राय बदल लेती हैं<br> | ||
| + | व्याख्याएँ<br> | ||
| + | पाप-पुण्य की, <br> | ||
| + | छल _<br> | ||
| + | आत्माओं के मिलाप का<br> | ||
| + | नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में<br> | ||
| + | उतर आता है! <br> | ||
| + | संयम के लौह-स्तम्भ<br> | ||
| + | टूट ढह जाते हैं, <br> | ||
| + | विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो<br> | ||
| + | तिनके की तरह<br> | ||
| + | डूब बह जाते हैं।<br> | ||
| + | जब भूकम्प वासना का<br> | ||
| + | 'तीव्रानुराग' का<br> | ||
| + | आमूल थरथरा देता है शरीर को, <br> | ||
| + | हिल जाती हैं मन की<br> | ||
| + | हर पुख्ता-पुख्ता चूल! <br> | ||
| + | आदमी<br> | ||
| + | अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को<br> | ||
| + | जाता है भूल! | ||
22:03, 21 जुलाई 2008 के समय का अवतरण
अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधें का विश्वास _
नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्व उपासना
कठिन सिद्व साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
वचन-वायदे!
और _
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
पाप-पुण्य की,
छल _
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
उतर आता है!
संयम के लौह-स्तम्भ
टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
डूब बह जाते हैं।
जब भूकम्प वासना का
'तीव्रानुराग' का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
हर पुख्ता-पुख्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
जाता है भूल!
