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"पगध्वनि / शिवदेव शर्मा 'पथिक'" के अवतरणों में अंतर

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मेरे राम से...
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अलमस्त पथिक के पग उठते,
एक भगीरथ मेरे मन का,  
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पगध्वनि  सुनाई  पड़ती  है ।
गंगा रोज नहा लेता है।
+
तिमिरांचल पर आशाओं की,  
सोया रहता हूँ तो मुझको,  
+
अरुणिमा सुनहली झड़ती है ।
मेरा राम जगा लेता है।
+
  
कौन भला मंदिर को जाए,  
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बढ़नेवाला  पंथी  पथ  पर ,
कौन करे तीरथ की पूजा?
+
दुलराता  है  तूफानों  को।
किसको हेरूं काशी मथुरा,  
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फूलों  का  दर्द कहा करता ,
मेरा राम न मुझसे दूजा।
+
बढ़ते जाना  मस्तानों  को।
  
जनम जनम का प्यासा हूँ मैं
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मंजिल  हो  चाहे दूर मगर,
मुझको राम नाम पीने दो।
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पग उठे -बढे परिश्रांत न हो ।
राम! इसी के लिए मुझे इस
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मत रुको - झुको जाने वाले ,
जलते मरघट में जीने दो।
+
दो पल भी मन उद्भ्रांत न हो ।
  
सुलग रही ज्वालाएँ मुझको
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छाया में  मधु  विश्वासों की ,
यज्ञ गीत पावन गाने दो।
+
प्राणों  की  जलन ठहरती है ।
ओ बनवासी राम मुझे भी
+
अलमस्त पथिक के पग उठते,
चरणों के पीछे आने दो।
+
पगध्वनि  सुनाई  पड़ती  है ।
  
कंचन का हिरणा माया की
+
आहट  जो पहली -पहली हो ,
सीता ठगी हुई लगती है।
+
उसमें जीवन  का  भान  रहे ।
जागो हे युग राम! पाप की
+
अरुणोदय  से  चलकर पूछो ,
लंका जली हुई लगती है।
+
कैसा  होगा  दिनमान  कहे ।
  
तानो तीर कमान प्रलापी
+
तो बढो पथिक! तुम चढो -चढो ,
सागर को अभिमान हो गया,  
+
मिल  जाता  है  सोपान  तुम्हें !
तानो तीर कमान तुम्हारे
+
हे  वर्द्धमान  ! अब  करता  है ,
शंकर का अपमान हो गया।
+
आह्वान  सुयश कल्याण तुम्हें !
  
दूर हिमालय की चोटी से
+
पगध्वनि है वह जिसको सुनकर ,
गंगा तुम्हे पुकार रही है,  
+
मानवता  राह    पकड़ती  है ।
आज उठाओ धनुष असुर की
+
अलमस्त पथिक के पग उठते ,
सत्ता फिर ललकार रही है।
+
पगध्वनि  सुनाई  पड़ती  है ।
  
सोने की लंका से कोई
+
जब -जब पगध्वनि हो- हो उठती ,
कुटिया वाला टेर रहा है,  
+
कोना-कोना  जग  जाता  है
राम तुम्हारा पूजक तुमको
+
पगध्वनि  है  उसका नाम कि ,
गली गली में हेर रहा है।
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जिसके लय में मंगल गाता है ।
  
संतों को है कष्ट ज्ञान को
+
ओ ! पंथी  के  पग के  छाले ,
बेच रहे हैं ज्ञानी मानी,  
+
मुस्काओ, नवनिर्माण करो ।
लूट रहा जनता को उसका
+
पगध्वनि जगी ,अब जगो विश्व ,
कोई नकली नेता दानी।
+
जग -जग कर नवल विहान करो !
  
कलाकार मर रहा कर्म की  
+
आशा की पगध्वनि उठी- उठी ,
लोग जलाया करते होली,
+
पुलकित  हो धरा  सिहरती है
झूठे संत तपस्वी फिरते
+
अलमस्त पथिक के पग उठते ,
घर-घर लिए भीख की झोली।
+
पगध्वनि  सुनाई  पड़ती  है।
 
+
अबलाओं को लाज बेचते
+
मैंने गली-गली में देखा,  
+
सहम रही है मर्यादाएँ
+
इन्हें चाहिए लक्ष्मण रेखा।
+
 
+
राम उठाओ धनुष चाहिए
+
जली हुई धरती को पानी,  
+
राम उठाओ धनुष चाहिए
+
मानवता को राम कहानी।
+
 
+
राम उठाओ धनुष तुम्हारा
+
रामराज मुझको गाना है,
+
कर दो शर संधान मनुज को
+
लक्ष्य चेतना का पाना है।  
+
 
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23:07, 10 अक्टूबर 2018 के समय का अवतरण

अलमस्त पथिक के पग उठते,
पगध्वनि सुनाई पड़ती है ।
तिमिरांचल पर आशाओं की,
अरुणिमा सुनहली झड़ती है ।

बढ़नेवाला पंथी पथ पर ,
दुलराता है तूफानों को।
फूलों का दर्द कहा करता ,
बढ़ते जाना मस्तानों को।

मंजिल हो चाहे दूर मगर,
पग उठे -बढे परिश्रांत न हो ।
मत रुको - झुको जाने वाले ,
दो पल भी मन उद्भ्रांत न हो ।

छाया में मधु विश्वासों की ,
प्राणों की जलन ठहरती है ।
अलमस्त पथिक के पग उठते,
पगध्वनि सुनाई पड़ती है ।

आहट जो पहली -पहली हो ,
उसमें जीवन का भान रहे ।
अरुणोदय से चलकर पूछो ,
कैसा होगा दिनमान कहे ।

तो बढो पथिक! तुम चढो -चढो ,
मिल जाता है सोपान तुम्हें !
हे वर्द्धमान  ! अब करता है ,
आह्वान सुयश कल्याण तुम्हें !

पगध्वनि है वह जिसको सुनकर ,
मानवता राह पकड़ती है ।
अलमस्त पथिक के पग उठते ,
पगध्वनि सुनाई पड़ती है ।

जब -जब पगध्वनि हो- हो उठती ,
कोना-कोना जग जाता है ।
पगध्वनि है उसका नाम कि ,
जिसके लय में मंगल गाता है ।

ओ ! पंथी के पग के छाले ,
मुस्काओ, नवनिर्माण करो ।
पगध्वनि जगी ,अब जगो विश्व ,
जग -जग कर नवल विहान करो !

आशा की पगध्वनि उठी- उठी ,
पुलकित हो धरा सिहरती है ।
अलमस्त पथिक के पग उठते ,
पगध्वनि सुनाई पड़ती है।