"बिछुआ उसके पैर का / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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+ | प्रेम भरे दिनों की स्मृतियों में खोया हुआ, | ||
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+ | कन्च-बर्फ के फर्श पर सर्द सुबहें लिये, | ||
+ | काँपता ही रहा मैं सिर के बल चलता हुआ | ||
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+ | जेठ की धूप में गर्म श्वांसें भरते हुए, | ||
+ | एक-एक बूँद को रहा तरसता जलता हुआ | ||
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+ | हूँ गवाह- उसके पैरों की बिवाइयों का, | ||
+ | ढलती उम्र की उँगलियों से फिसलता हुआ | ||
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+ | सिमटा हुआ सा गिरा हूँ- आहें लिये, | ||
+ | सीढ़ीनुमा खेत- किसी मेड पर सँभलता हुआ | ||
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+ | ढली उम्र, लेकिन मैं बिछुआ-उसके पैर का | ||
+ | अब भी हूँ, पहाड़ी नदी सा मचलता हुआ | ||
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+ | रागिनी छेड़कर रंग-सा बिखेरकर, | ||
+ | कुछ गुनगुनाता हूँ अब भी पहाड़ सा पिघलता हुआ | ||
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+ | वृक्षों के रुदन-सा भरी बरसात में, | ||
+ | आपदा के मौन का वीभत्स स्वर निगलता हुआ | ||
+ | मैं हराता गया- ओलों-बर्फ को, तपन-सिहरन को, | ||
+ | अंधियारे के गर्त से बाहर निकलता हुआ | ||
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+ | चोटी पे बज रही धुन मेरे संघर्ष की, | ||
+ | गाथाओं के गर्भ में मेरा संकल्प पलता हुआ | ||
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02:21, 29 जून 2019 के समय का अवतरण
प्रेम भरे दिनों की स्मृतियों में खोया हुआ,
जब प्रिय था उसके संग टहलता हुआ
कन्च-बर्फ के फर्श पर सर्द सुबहें लिये,
काँपता ही रहा मैं सिर के बल चलता हुआ
जेठ की धूप में गर्म श्वांसें भरते हुए,
एक-एक बूँद को रहा तरसता जलता हुआ
हूँ गवाह- उसके पैरों की बिवाइयों का,
ढलती उम्र की उँगलियों से फिसलता हुआ
सिमटा हुआ सा गिरा हूँ- आहें लिये,
सीढ़ीनुमा खेत- किसी मेड पर सँभलता हुआ
ढली उम्र, लेकिन मैं बिछुआ-उसके पैर का
अब भी हूँ, पहाड़ी नदी सा मचलता हुआ
रागिनी छेड़कर रंग-सा बिखेरकर,
कुछ गुनगुनाता हूँ अब भी पहाड़ सा पिघलता हुआ
वृक्षों के रुदन-सा भरी बरसात में,
आपदा के मौन का वीभत्स स्वर निगलता हुआ
मैं हराता गया- ओलों-बर्फ को, तपन-सिहरन को,
अंधियारे के गर्त से बाहर निकलता हुआ
चोटी पे बज रही धुन मेरे संघर्ष की,
गाथाओं के गर्भ में मेरा संकल्प पलता हुआ
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