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एक सपना आँख में झलका : | एक सपना आँख में झलका : | ||
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कहीं पर ढोल-ताशे और शहनाई बजे | कहीं पर ढोल-ताशे और शहनाई बजे | ||
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आवाज़ जैसे सिमटकर भर गई मेरे कान में, | आवाज़ जैसे सिमटकर भर गई मेरे कान में, | ||
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आँसुओं से बनी, दुख के देश की लज्जावती रानी, | आँसुओं से बनी, दुख के देश की लज्जावती रानी, | ||
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थिरककर किसी तारे से उतर आई बड़े अनजान में । | थिरककर किसी तारे से उतर आई बड़े अनजान में । | ||
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जगमगाता-सा अतीन्द्रिय रूप, स्वप्नों से रंगे परिधान, | जगमगाता-सा अतीन्द्रिय रूप, स्वप्नों से रंगे परिधान, | ||
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वह अज्ञातनामा राजकन्या प्राण में घिरने लगी, | वह अज्ञातनामा राजकन्या प्राण में घिरने लगी, | ||
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एक मंडप में, अपरिचित वेद-मन्त्रों-बीच | एक मंडप में, अपरिचित वेद-मन्त्रों-बीच | ||
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गठबंधन किए, छाया-सरीखी, भाँवरें फिरने लगी। | गठबंधन किए, छाया-सरीखी, भाँवरें फिरने लगी। | ||
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बढा सपना : | बढा सपना : | ||
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बजी शहनाई, अगिनती वाद्य गूँजे, | बजी शहनाई, अगिनती वाद्य गूँजे, | ||
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रूपसी की बाँह मेरी बाँह में, फिर, दी गई, | रूपसी की बाँह मेरी बाँह में, फिर, दी गई, | ||
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स्वजन छायाओं-सरीखे बढे, मुझ से लगे कहने: | स्वजन छायाओं-सरीखे बढे, मुझ से लगे कहने: | ||
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आँसुओं के देश जा , तेरी बिदाई की गई। | आँसुओं के देश जा , तेरी बिदाई की गई। | ||
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शुभ्रवसना वधू आगे चली, पीछे मैं विमोहित-सा, | शुभ्रवसना वधू आगे चली, पीछे मैं विमोहित-सा, | ||
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नगर, पथ, विजन, वन, सब छोड़ता, बढता गया, | नगर, पथ, विजन, वन, सब छोड़ता, बढता गया, | ||
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बढा कोहरा्, राजकन्या खो गई, छाया अंधेरा | बढा कोहरा्, राजकन्या खो गई, छाया अंधेरा | ||
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मैं शिलाओं-पत्थरों पर दूर तक चढता गया। … | मैं शिलाओं-पत्थरों पर दूर तक चढता गया। … | ||
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एक पर्वत के हिमाच्छादित शिखर पर मैं खड़ा, | एक पर्वत के हिमाच्छादित शिखर पर मैं खड़ा, | ||
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नीचे अतल सागर उफनता औ’ हिलोरें मारता, | नीचे अतल सागर उफनता औ’ हिलोरें मारता, | ||
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रह गया मैं चीख से अपनी, गुफाओं-कंदराओं में | रह गया मैं चीख से अपनी, गुफाओं-कंदराओं में | ||
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बसे निर्दय, अदर्शित शून्य को गुंजारता… | बसे निर्दय, अदर्शित शून्य को गुंजारता… | ||
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फिर: अचानक प्रियतमा मेरी, | फिर: अचानक प्रियतमा मेरी, | ||
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गरजते अतल जल से | गरजते अतल जल से | ||
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जलपरी जैसी उभरकर पास मेरे आ गई, | जलपरी जैसी उभरकर पास मेरे आ गई, | ||
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बाँह में भरकर, मुझे भी साथ लेकर, होंठ पर | बाँह में भरकर, मुझे भी साथ लेकर, होंठ पर | ||
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रख होंठ, फिर से लहर बीच समा गई... | रख होंठ, फिर से लहर बीच समा गई... | ||
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12:05, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
एक सपना आँख में झलका :
कहीं पर ढोल-ताशे और शहनाई बजे
आवाज़ जैसे सिमटकर भर गई मेरे कान में,
आँसुओं से बनी, दुख के देश की लज्जावती रानी,
थिरककर किसी तारे से उतर आई बड़े अनजान में ।
जगमगाता-सा अतीन्द्रिय रूप, स्वप्नों से रंगे परिधान,
वह अज्ञातनामा राजकन्या प्राण में घिरने लगी,
एक मंडप में, अपरिचित वेद-मन्त्रों-बीच
गठबंधन किए, छाया-सरीखी, भाँवरें फिरने लगी।
बढा सपना :
बजी शहनाई, अगिनती वाद्य गूँजे,
रूपसी की बाँह मेरी बाँह में, फिर, दी गई,
स्वजन छायाओं-सरीखे बढे, मुझ से लगे कहने:
आँसुओं के देश जा , तेरी बिदाई की गई।
शुभ्रवसना वधू आगे चली, पीछे मैं विमोहित-सा,
नगर, पथ, विजन, वन, सब छोड़ता, बढता गया,
बढा कोहरा्, राजकन्या खो गई, छाया अंधेरा
मैं शिलाओं-पत्थरों पर दूर तक चढता गया। …
एक पर्वत के हिमाच्छादित शिखर पर मैं खड़ा,
नीचे अतल सागर उफनता औ’ हिलोरें मारता,
रह गया मैं चीख से अपनी, गुफाओं-कंदराओं में
बसे निर्दय, अदर्शित शून्य को गुंजारता…
फिर: अचानक प्रियतमा मेरी,
गरजते अतल जल से
जलपरी जैसी उभरकर पास मेरे आ गई,
बाँह में भरकर, मुझे भी साथ लेकर, होंठ पर
रख होंठ, फिर से लहर बीच समा गई...