"भूमंडलीकरण / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर
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अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह | अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह | ||
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अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा | अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा | ||
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झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है | झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है | ||
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धरती की काया | धरती की काया | ||
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घूम रही है गोल-गोल बहुत तेज़ | घूम रही है गोल-गोल बहुत तेज़ | ||
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कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं | कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं | ||
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आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते | आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते | ||
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सिर के बालों में अंगुलियाँ फिरा रहे हैं हौले-हौले | सिर के बालों में अंगुलियाँ फिरा रहे हैं हौले-हौले | ||
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कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं | कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं | ||
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खेतों में कोई नहीं है | खेतों में कोई नहीं है | ||
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दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है | दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है | ||
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इंसान पशु-पक्षी | इंसान पशु-पक्षी | ||
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हवा-पानी हरियाली को | हवा-पानी हरियाली को | ||
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सूखने डाल दिया गया है | सूखने डाल दिया गया है | ||
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खाल खींच कर | खाल खींच कर | ||
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मैदान पहाड़ गङ्ढे | मैदान पहाड़ गङ्ढे | ||
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तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं | तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं | ||
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फिर भी सुकून से चल रहा है | फिर भी सुकून से चल रहा है | ||
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दुनिया का कारोबार | दुनिया का कारोबार | ||
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एक बच्चा बार-बार | एक बच्चा बार-बार | ||
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धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है | धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है | ||
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उसे पेशाब लगा है | उसे पेशाब लगा है | ||
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निकल नहीं रहा | निकल नहीं रहा | ||
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एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है | एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है | ||
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कांटे चुभ रहे हैं | कांटे चुभ रहे हैं | ||
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पृथ्वी की फिरकी बार-बार फेंकती है उसे | पृथ्वी की फिरकी बार-बार फेंकती है उसे | ||
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खारे सागर के किनारे | खारे सागर के किनारे | ||
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अंतरिक्ष के टहलुए | अंतरिक्ष के टहलुए | ||
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अंगुलियां चटकाते हैं | अंगुलियां चटकाते हैं | ||
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अच्छी है दृश्य की शुरुआत | अच्छी है दृश्य की शुरुआत | ||
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(रचनाकाल : 1993) | (रचनाकाल : 1993) | ||
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22:04, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल-गोल बहुत तेज़
कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियाँ फिरा रहे हैं हौले-हौले
कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है
इंसान पशु-पक्षी
हवा-पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर
मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं
फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार
एक बच्चा बार-बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा
एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार-बार फेंकती है उसे
खारे सागर के किनारे
अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत
(रचनाकाल : 1993)