"उर्दू की मुख़ालिफ़त में / नोमान शौक़" के अवतरणों में अंतर
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+ | मैं नहीं चाहता | ||
+ | कोई झरने के संगीत सा | ||
+ | मेरी हर तान सुनता रहे | ||
+ | एक ऊंची पहाड़ी प' बैठा हुआ | ||
+ | सिर को धुनता रहे। | ||
− | + | मैं अब | |
− | + | झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूं | |
− | + | क़स्ब:-व-शहर को एक गहरे समुन्दर | |
− | + | में ग़र्क़ाब करने के दरपै हूं। | |
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− | + | मैं नहीं चाहता | |
− | + | मेरी चीख़ को शायरी जानकर | |
− | + | क़द्रदानों के मजमे में ताली बजे | |
− | + | वाहवाही मिले | |
+ | और मैं अपनी मसनद प' बैठा हुआ | ||
+ | पान खाता रहूं | ||
+ | मुस्कुराता रहूं। | ||
− | + | मैं नहीं चाहता | |
− | + | कटे बाज़ुओं से मिरे | |
− | + | क़तरा क़तरा टपकते हुए | |
− | + | सुर्ख़ सैयाल मे कीमिया घोलकर | |
− | + | एक ख़ुशरंग पैकर बनाए | |
− | + | रऊनत का मारा मुसव्विर कोई | |
− | + | और ख़ुदाई का दावा करे। | |
− | + | इक ज़माने तलक | |
− | + | अपने जैसों के कांधों पे' | |
− | + | सिर रखके रोते रहे | |
− | + | मैं भी और मेरे अजदाद भी | |
− | + | अपने कानों में ही सिसकियां भरते भरते | |
− | + | मैं तंग आ चुका | |
− | + | बस - | |
− | + | अपने हिस्से का ज़हर | |
− | + | अब मुख़ातिब की शह-रग में भी | |
− | + | दौड़ता, शोर करता हुआ | |
− | + | देखना चाहता हूं। | |
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− | + | मैं नहीं चाहता | |
− | + | गालियां दूं किसी को | |
− | + | तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा' | |
− | + | मुझे इतनी मीठी जुबां की | |
− | + | ज़रुरत नहीं। | |
− | + | [[चित्र:IMG2672A.jpg|thumb|250px|Nomaan Shauque]] | |
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15:21, 13 सितम्बर 2008 का अवतरण
मैं नहीं चाहता कोई झरने के संगीत सा मेरी हर तान सुनता रहे एक ऊंची पहाड़ी प' बैठा हुआ सिर को धुनता रहे।
मैं अब झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूं क़स्ब:-व-शहर को एक गहरे समुन्दर में ग़र्क़ाब करने के दरपै हूं।
मैं नहीं चाहता मेरी चीख़ को शायरी जानकर क़द्रदानों के मजमे में ताली बजे वाहवाही मिले और मैं अपनी मसनद प' बैठा हुआ पान खाता रहूं मुस्कुराता रहूं।
मैं नहीं चाहता कटे बाज़ुओं से मिरे क़तरा क़तरा टपकते हुए सुर्ख़ सैयाल मे कीमिया घोलकर एक ख़ुशरंग पैकर बनाए रऊनत का मारा मुसव्विर कोई और ख़ुदाई का दावा करे।
इक ज़माने तलक अपने जैसों के कांधों पे' सिर रखके रोते रहे मैं भी और मेरे अजदाद भी अपने कानों में ही सिसकियां भरते भरते मैं तंग आ चुका बस -
अपने हिस्से का ज़हर अब मुख़ातिब की शह-रग में भी दौड़ता, शोर करता हुआ देखना चाहता हूं।
मैं नहीं चाहता गालियां दूं किसी को तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा' मुझे इतनी मीठी जुबां की ज़रुरत नहीं।