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"कोई ऐसी सज़ा / नमन दत्त" के अवतरणों में अंतर

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कोई ऐसी सज़ा न दे जाना।
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जाने कब के बिखर गये होते।
ज़िंदगी की दुआ दे जाना॥
+
ग़म होता, तो मर गये होते।
  
दिल में फिर हसरतें जगा के मेरे,
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काश अपने शहर में गर होते,
दर्द का सिलसिला न दे जाना॥
+
दिन ढले हम भी घर गये होते।
  
वक़्त नासूर बना दे जिसको
+
इक ख़लिश उम्र भर रही, वर्ना
यूँ कोई आबला न दे जाना॥
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सारे नासूर भर गये होते।
  
सफ़र में उम्र ही कट जाए कहीं,
+
दूरियाँ उनसे जो रक्खी होतीं,
इस क़दर फ़ासला न दे जाना॥
+
क्यूँ अबस बालो-पर गये होते।
  
साँस दर साँस बोझ लगती है,
+
ग़र्क़ अपनी ख़ुदी ने हमको किया,
ज़िंदगी बारहा न दे जाना॥
+
पार वरना उतर गये होते।
  
इस जहाँ के अलम ही काफ़ी हैं,
+
कुछ तो होना था इश्क़बाज़ी में,
और तुम दिलरुबा दे जाना॥
+
दिल जाते, तो सर गये होते।
  
पीठ में घोंपकर कोई ख़ंजर,
+
बाँध रक्खा हमें तुमने, वरना
दोस्ती का सिला न दे जाना॥
+
ख़्वाब बनकर बिखर गये होते।
  
इल्म हर शय का उन्हें है "साबिर"
+
हम भी "साबिर" के साथ, रात कभी
तुम कोई मशवरा न दे जाना॥
+
ख़्वाहिशों के नगर गये होते।
 
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23:04, 24 मई 2020 के समय का अवतरण

जाने कब के बिखर गये होते।
ग़म न होता, तो मर गये होते।

काश अपने शहर में गर होते,
दिन ढले हम भी घर गये होते।

इक ख़लिश उम्र भर रही, वर्ना
सारे नासूर भर गये होते।

दूरियाँ उनसे जो रक्खी होतीं,
क्यूँ अबस बालो-पर गये होते।

ग़र्क़ अपनी ख़ुदी ने हमको किया,
पार वरना उतर गये होते।

कुछ तो होना था इश्क़बाज़ी में,
दिल न जाते, तो सर गये होते।

बाँध रक्खा हमें तुमने, वरना
ख़्वाब बनकर बिखर गये होते।

हम भी "साबिर" के साथ, रात कभी
ख़्वाहिशों के नगर गये होते।