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"रिश्ता /अनामिका" के अवतरणों में अंतर

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उस उत्साह की सोचो
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वह बिल्कुल अनजान थी!
जिससे कि लोग
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मेरा उससे रिश्ता बस इतना था
फ़रमाइशी चिट्ठियाँ लिखते हैं विविध भारती को!
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कि हम एक पंसारी के गाहक थे
सोचो उन नन्हे-नन्हे
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नए मुहल्ले में!
क्रान्तिबीजों के बारे में
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वह मेरे पहले से बैठी थी-
संपादक के नाम की चिठ्ठियों में
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टॉफी के मर्तबान से टिककर
जो अँकुरते हैं बस पत्ती-भर!
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स्टूल के राजसिंहासन पर!
नाराज़गी की एक लुप्तप्राय प्रजाति के बारे में
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मुझसे भी ज़्यादा
सोचो तो
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थकी दिखती थी वह
सोचो उन मीठे उलाहनों की
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फिर भी वह हंसी!
जो लोग देते थे
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उस हँसी का न तर्क था,
मिले हुए अर्सा हो जाने पर!
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न व्याकरण,
तूफ़ान
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न सूत्र,
प्यालों में भी
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न अभिप्राय!
मचते हैं जो
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वह ब्रह्म की हँसी थी।
वे ऐसे उद्दीप्त होते हैं
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उसने फिर हाथ भी बढ़ाया,
जैसे चुम्बन
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और मेरी शॉल का सिरा उठाकर
नींद से माती आँखों पर
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उसके सूत किए सीधे
भोर के पहले पहर!
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जो बस की किसी कील से लगकर
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भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे।
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पल भर को लगा-उसके उन झुके कंधों से
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मेरे भन्नाये हुए सिर का
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बेहद पुराना है बहनापा।
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17:21, 29 मई 2020 के समय का अवतरण

वह बिल्कुल अनजान थी!
मेरा उससे रिश्ता बस इतना था
कि हम एक पंसारी के गाहक थे
नए मुहल्ले में!
वह मेरे पहले से बैठी थी-
टॉफी के मर्तबान से टिककर
स्टूल के राजसिंहासन पर!
मुझसे भी ज़्यादा
थकी दिखती थी वह
फिर भी वह हंसी!
उस हँसी का न तर्क था,
न व्याकरण,
न सूत्र,
न अभिप्राय!
वह ब्रह्म की हँसी थी।
उसने फिर हाथ भी बढ़ाया,
और मेरी शॉल का सिरा उठाकर
उसके सूत किए सीधे
जो बस की किसी कील से लगकर
भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे।
पल भर को लगा-उसके उन झुके कंधों से
मेरे भन्नाये हुए सिर का
बेहद पुराना है बहनापा।