"एक अजीब दिन / अरुण कमल" के अवतरणों में अंतर
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वह एक अजीब दिन था दूसरा दिन | वह एक अजीब दिन था दूसरा दिन | ||
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जब अख़बार नहीं आया | जब अख़बार नहीं आया | ||
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लगा कुछ भुलाया-सा जैसे सुबह | लगा कुछ भुलाया-सा जैसे सुबह | ||
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से नमक नहीं खाया | से नमक नहीं खाया | ||
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और उस दिन मैंने भी एक अजीब काम किया दिन भर | और उस दिन मैंने भी एक अजीब काम किया दिन भर | ||
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उन सिक्कों को ढूंढ़ता फिरा | उन सिक्कों को ढूंढ़ता फिरा | ||
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जिनसे खेला गया था जुआ | जिनसे खेला गया था जुआ | ||
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जो भिखारियों के कटोरों में गिरे | जो भिखारियों के कटोरों में गिरे | ||
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जो बच्चों की डांड़ में बांधे गए | जो बच्चों की डांड़ में बांधे गए | ||
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जो शव पर पेंके गए | जो शव पर पेंके गए | ||
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जो कभी नाले में गिरे फिर छाने गए | जो कभी नाले में गिरे फिर छाने गए | ||
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एक अकेला सिक्का शाम का | एक अकेला सिक्का शाम का | ||
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और उस दिन मैंने देखा | और उस दिन मैंने देखा | ||
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मेरे भीतर से गहरे काले सीलन भरे अंधेरे से | मेरे भीतर से गहरे काले सीलन भरे अंधेरे से | ||
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एक-एक कर निकले रंग-बिरंगे चमकीले कीड़े | एक-एक कर निकले रंग-बिरंगे चमकीले कीड़े | ||
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जैसे ज़रा-सा ढक्कन उठा हो और घुसी हो धूप भीतर | जैसे ज़रा-सा ढक्कन उठा हो और घुसी हो धूप भीतर | ||
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इतने चेहरे मैं भूल गया इतनी जगहों के नाम | इतने चेहरे मैं भूल गया इतनी जगहों के नाम | ||
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इतनी दुकानें इतने सामान भूल गए खिलाड़ी विश्व-सुंदरियाँ | इतनी दुकानें इतने सामान भूल गए खिलाड़ी विश्व-सुंदरियाँ | ||
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अब रहा नहीं कोई भी विचार आज का न पंचांग न फलाफल | अब रहा नहीं कोई भी विचार आज का न पंचांग न फलाफल | ||
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प्रधान का चेहरा भी मिट्टी में मिल गया | प्रधान का चेहरा भी मिट्टी में मिल गया | ||
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और इस तरह ढाई रुपए बचे | और इस तरह ढाई रुपए बचे | ||
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जिनसे मैंने दो बार मुफ़्त में चाय पी | जिनसे मैंने दो बार मुफ़्त में चाय पी | ||
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और दूसरे दिन जब अख़बार मिला तब मैंने जाना | और दूसरे दिन जब अख़बार मिला तब मैंने जाना | ||
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कि दो दिन पहले ही प्रधान जा चुके थे | कि दो दिन पहले ही प्रधान जा चुके थे | ||
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और तब मैं बहुत दुखी हुआ भूतलक्षी प्रभाव से | और तब मैं बहुत दुखी हुआ भूतलक्षी प्रभाव से | ||
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क्योंकि राष्ट्रीय शोक घोषित था | क्योंकि राष्ट्रीय शोक घोषित था | ||
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और सूर्योदय का समय था छह बजकर नौ मिनट | और सूर्योदय का समय था छह बजकर नौ मिनट | ||
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और सूर्यास्त पाँच पचास पर! | और सूर्यास्त पाँच पचास पर! | ||
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12:40, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
वह एक अजीब दिन था दूसरा दिन
जब अख़बार नहीं आया
लगा कुछ भुलाया-सा जैसे सुबह
से नमक नहीं खाया
और उस दिन मैंने भी एक अजीब काम किया दिन भर
उन सिक्कों को ढूंढ़ता फिरा
जिनसे खेला गया था जुआ
जो भिखारियों के कटोरों में गिरे
जो बच्चों की डांड़ में बांधे गए
जो शव पर पेंके गए
जो कभी नाले में गिरे फिर छाने गए
एक अकेला सिक्का शाम का
और उस दिन मैंने देखा
मेरे भीतर से गहरे काले सीलन भरे अंधेरे से
एक-एक कर निकले रंग-बिरंगे चमकीले कीड़े
जैसे ज़रा-सा ढक्कन उठा हो और घुसी हो धूप भीतर
इतने चेहरे मैं भूल गया इतनी जगहों के नाम
इतनी दुकानें इतने सामान भूल गए खिलाड़ी विश्व-सुंदरियाँ
अब रहा नहीं कोई भी विचार आज का न पंचांग न फलाफल
प्रधान का चेहरा भी मिट्टी में मिल गया
और इस तरह ढाई रुपए बचे
जिनसे मैंने दो बार मुफ़्त में चाय पी
और दूसरे दिन जब अख़बार मिला तब मैंने जाना
कि दो दिन पहले ही प्रधान जा चुके थे
और तब मैं बहुत दुखी हुआ भूतलक्षी प्रभाव से
क्योंकि राष्ट्रीय शोक घोषित था
और सूर्योदय का समय था छह बजकर नौ मिनट
और सूर्यास्त पाँच पचास पर!