"जब बोलना जरूरी हो / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर
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+ | नहीं उगता सूरज | ||
+ | लेकिन पौ फटने का पता तो चलता ही है | ||
+ | कौवे के बोलने से नहीं आते मेहमान | ||
+ | पर जब वे आते , बोलता है कौवा | ||
+ | उसकी काँव-काँव भी दे जाती है | ||
+ | खुशी का पैग़ाम | ||
+ | भू-लुण्ठित होने के पहले वृक्ष | ||
+ | लगाता है ज़ोरदार आवाज़ | ||
+ | और बचा जाता है बहुत सारे पक्षियों व वृक्षों को | ||
+ | अकारण ही मारे जाने से | ||
+ | मिमियाती बकरियाँ इतना तो बता ही देती हैं | ||
+ | कोई कसाई गुजर रहा है बगल से | ||
+ | और राहें हों जातीं चौकन्नी | ||
+ | दीवाली के पटाखों में नहीं होता कोई संगीत | ||
+ | फिर भी पसंद की जाती है वह आवाज़ | ||
+ | बरसने के पहले गरजते बादलों का शोर | ||
+ | कानों में पड़ता जीवन के सगुन-संगीत की तरह | ||
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+ | मछलियाँ पकड़ने में बगुला | ||
+ | नहीं करता कोई आवाज़ | ||
+ | और वे मारी जाती है बेआवाज़ | ||
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+ | बोलने से सजग होता परिवेश | ||
+ | फ़र्क पड़ता है अंतरिक्ष के आयतन में | ||
+ | जहाँ बोलना जरूरी हो, चुप्पी साध लेना | ||
+ | मृत्यु को प्रोत्साहित करना है | ||
+ | हमारी सभ्यता के विकास में | ||
+ | मानवीय गुणों का जन्म हुआ है | ||
+ | सही वक़्त पर बोलने के कारण ही | ||
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+ | बोलना हमारे जिन्द़ा रहने का परिचायक है | ||
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+ | मरने से पहले बोला गया एक-एक शब्द | ||
+ | धरती को कर जाता है आश्वस्त | ||
+ | कि सिर्फ़ भेड़ियों की माँद भर नहीं | ||
+ | बल्कि वह वात्सल्य की गोद भी है | ||
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+ | जहाँ जीवन अभी जीया जाना बाकी है | ||
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+ | कवियों, पक्षियों, मज़दूरों, | ||
+ | मज़बूरों, लेखकों, पत्रकारों और | ||
+ | पाठकों को बोलना ही चाहिये | ||
+ | अन्यथा उनके ही देश में उन्हें | ||
+ | चिपका दिया जाएगा दीवारों पर पोस्टरों की तरह | ||
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+ | हमारे बोलने से टूटती हैं रूढ़ियाँ | ||
+ | मुक्त होती बन्द ऊर्जा | ||
+ | स्पन्दित होता संवेग | ||
+ | बनती है कुछ और ज़गह | ||
+ | आने वाली पीढ़ियों के लिए | ||
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+ | जब और जहाँ बोलना ज़रूरी हो | ||
+ | हमें होना ही चाहिए पता | ||
+ | और हमें बोलना ही चाहिए | ||
+ | हम अब तक मरे तो नहीं है | ||
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21:50, 7 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
माना कि मुर्गे के बाग देने से
नहीं उगता सूरज
लेकिन पौ फटने का पता तो चलता ही है
कौवे के बोलने से नहीं आते मेहमान
पर जब वे आते , बोलता है कौवा
उसकी काँव-काँव भी दे जाती है
खुशी का पैग़ाम
भू-लुण्ठित होने के पहले वृक्ष
लगाता है ज़ोरदार आवाज़
और बचा जाता है बहुत सारे पक्षियों व वृक्षों को
अकारण ही मारे जाने से
मिमियाती बकरियाँ इतना तो बता ही देती हैं
कोई कसाई गुजर रहा है बगल से
और राहें हों जातीं चौकन्नी
दीवाली के पटाखों में नहीं होता कोई संगीत
फिर भी पसंद की जाती है वह आवाज़
बरसने के पहले गरजते बादलों का शोर
कानों में पड़ता जीवन के सगुन-संगीत की तरह
मछलियाँ पकड़ने में बगुला
नहीं करता कोई आवाज़
और वे मारी जाती है बेआवाज़
बोलने से सजग होता परिवेश
फ़र्क पड़ता है अंतरिक्ष के आयतन में
जहाँ बोलना जरूरी हो, चुप्पी साध लेना
मृत्यु को प्रोत्साहित करना है
हमारी सभ्यता के विकास में
मानवीय गुणों का जन्म हुआ है
सही वक़्त पर बोलने के कारण ही
बोलना हमारे जिन्द़ा रहने का परिचायक है
मरने से पहले बोला गया एक-एक शब्द
धरती को कर जाता है आश्वस्त
कि सिर्फ़ भेड़ियों की माँद भर नहीं
बल्कि वह वात्सल्य की गोद भी है
जहाँ जीवन अभी जीया जाना बाकी है
कवियों, पक्षियों, मज़दूरों,
मज़बूरों, लेखकों, पत्रकारों और
पाठकों को बोलना ही चाहिये
अन्यथा उनके ही देश में उन्हें
चिपका दिया जाएगा दीवारों पर पोस्टरों की तरह
हमारे बोलने से टूटती हैं रूढ़ियाँ
मुक्त होती बन्द ऊर्जा
स्पन्दित होता संवेग
बनती है कुछ और ज़गह
आने वाली पीढ़ियों के लिए
जब और जहाँ बोलना ज़रूरी हो
हमें होना ही चाहिए पता
और हमें बोलना ही चाहिए
हम अब तक मरे तो नहीं है