भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"वर्षा-दिनः एक आफि़स / कुँअर बेचैन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर बेचैन }} जलती-बुझती रही दिवस के ऑफ़िस में ...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 51: | पंक्ति 51: | ||
वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली। | वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली। | ||
− | |||
− |
18:15, 7 अक्टूबर 2008 का अवतरण
जलती-बुझती रही
दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।
वर्षा थी,
यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
सुबह-सुबह आवारा बादल गोली दाग़ गया
सूरज का चपरासी डरकर
घर को भाग गया
गीले मेज़पोश वाली-
भू-मेज़ रही इकली।
वर्षा थी, यूँ अपने घर से धूप नहीं निकली।
आज न आई आशुलेखिका कोई किरण-परी
विहग-लिपिक ने
आज न खोली पंखों की छतरी
सी-सी करती पवन
पिच गई स्यात् कहीं उँगली।
वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल कोई शब्द नहीं
स्याही बहुत
किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं
सिर्फ़ अकेलेपन की छाया
कुर्सी से उछली।
वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।