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"भ्रमवश / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=ये फूल नहीं / अजित कुमार
 
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आओ, उसे खा लें
 
आओ, उसे खा लें

21:16, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

आओ, उसे खा लें
जो हमें रखने के लिए मिला था
उसे ग़लती से
तमाम लोग जीवन कह रहे थे
और सिरफिरे थोड़े-से
नारे-पर-नारा लगाए ही
चले जाते थे :
यौवन । यौवन ।

अगर एक सीढी बनाई जाय
इतनी ऊँची
जितना वह तारा है…
अगर हम उस पर चढते-चढते
कभी-न-कभी
वहाँ पहुँच जाएँ…
और चारो ओर फैला
भयंकर सुनसान पाकर
धीरे-धीरे
उतर आएँ…
शायद इसमें उतना समय न लगेगा
-न कष्ट होगा
जितना सुबह उठकर
दाँत माँजने में ।
उसी के बाद तो खाना या
चबाना है उसे,
जिसको ज़्यादातर कहते हैं जीवन ।
कुछ यौवन ।
कुछ शासन ।

क्या हो गया है
उस कुत्ते को
चीख़े ही चला जा रहा है ।
वे आएँगे :
जाल
भाले
बन्दूकें
लाठियाँ
कठघरे लिए
वे आएँगे ।
सीढी कहीं न होगी ।
और होगी तो
वह भी
भरभरा के गिर पड़ेगी ।

हम दूर-दूर फैले भयानक सुनसान में
छूट जाएँगे
-उसे भ्रमवश
कुछ लोग भले ही कुछ कह बैठें
पर
ज़्यादातर मानते हैं जीवन ।
कुछ यौवन ।
कुछ शासन ।
दो-एक अपनापन ।