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"स्त्री की आवाज़ / अर्चना लार्क" के अवतरणों में अंतर

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जब तुम जनेऊ लपेट रहे थे
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कविता में कुछ संशोधन कर रही हैं कवि
कुछ दूर एक सुन्दर बच्चा अपने होने की गवाही दे रहा था
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जब मन्त्रों की बौछार के बीच
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तुम भाग्य का ठप्पा लगा रहे थे
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कुछ दूर वह बच्चा सँघर्ष का पहला पाठ पढ़ रहा था
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जब तुम अपने नाकारापन पर गँगाजल छिड़क रहे थे
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और उस बच्चे को हर कहीं रोक रहे थे
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तुम्हारी मूर्खता तुम्हारी चोटी की तरह लहरा रही थी
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तुम उसकी बुद्धि को पहचानाने से इनकार करते रहे
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वह कोई था एकलव्य या उसका वँशज रोहित वेमुला
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तुमने कहा वे चहांरदीवारी के अन्ददर नहीं आ सकते
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अपने स्वार्थ से समय को सिद्ध करते हुए
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तुमने उन्हें अपनी थालियों से दूर रखा
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कुर्सी पर विराजमान तुम
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उन्हें अपने पैरों के पास बिठाने को क्रान्ति समझते रहे
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तुम स्त्रियों को कभी राख तो कभी पत्थर बनाते चलते रहे
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तुम्हारा पुरुषत्व उन पर गुर्राता रहा
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फिर एक दिन तुमने कहा कि घर ही ख़ाली कर दो !
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तुम्हारे खड़ाऊँ तुम्हारी धोती तुम्हारा अँगौछा जनेऊ
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मस्तक पर उभरा हुआ चन्दन तुम्हारा भोजन
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सब उनका श्रम है
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तुम नंगे हो अपनी जाति अपने प्रतीकों अपने धर्म के भीतर
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"तुम विधर्मी सब गद्दार हो" कहने वाले तुम
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ज़रा नज़रें घुमाकर देखो एक लम्बी कतार है
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सौन्दर्य से भरा हुआ एक ’शाहीन बाग़’
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सुनो वे आँखे तुमसे क्या कह रही हैं?
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मैंने अभी-अभी सुना — ‘हिटलर गो बैक’  
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और सबसे ऊँची आवाज़ उस स्त्री की है
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जिसे तुम अपने शास्त्रों के खौलते हुए तेल में
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डुबोते रहे थे बार-बार ।
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17:36, 23 जुलाई 2023 के समय का अवतरण

कविता में कुछ संशोधन कर रही हैं कवि