"परछाइयाँ / अर्चना लार्क" के अवतरणों में अंतर
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सपने के भीतर सपना चला आता है | सपने के भीतर सपना चला आता है |
15:11, 12 अगस्त 2021 के समय का अवतरण
नारों से आबाद शहर में
मुझे ख़ूब सपने आते हैं
बचपन दिखता है
जिसके गाल धँसे हुए हैं
चिढ़ाते हुए मुँह, लपलपाती जीभ
पसीने से तरबतर शरीर
घर निकाला
घास की एक झोपड़ी
एक दो तीन चार की गिनती
माँ की रोटी से सुगन्ध उठती है
दादी कौओं के लिए रोटी निकालती हैं
गर्मियों की शाम
माँ एक झपकी में ही नींद पूरी कर लेती हैं
और रसोईघर में बदल जाती हैं
सपने के भीतर सपना चला आता है
धप्प कहते दोस्त
पेड़ पर ऊपर-नीचे करते हैं
माँ के आँचल से लुकाछिपी करते हैं
क से कबूतर अ से अमरूद के बीच
शब्दों को पिरोते हुए
नारों से आबाद शहर में
एकाएक ढह जाता है घर
सड़क, बैनर, स्त्री एकाकार हो गए हैं
बचपन के खेल के मैदान में किसी ने रख दी हैं लाठियाँ
कुछ नए क़िस्म के अपराधी
जिनके हाथ में काग़ज़ नहीं है
अपनी हज़ार परछाइयों के साथ टहलते हैं
ख़ून से लथपथ मेरी आँख में ।