"बावरा अहेरी (कविता) / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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भोर का बावरा अहेरी | भोर का बावरा अहेरी | ||
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पहले बिछाता है आलोक की | पहले बिछाता है आलोक की | ||
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लाल-लाल कनियाँ | लाल-लाल कनियाँ | ||
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पर जब खींचता है जाल को | पर जब खींचता है जाल को | ||
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बाँध लेता है सभी को साथः | बाँध लेता है सभी को साथः | ||
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छोटी-छोटी चिड़ियाँ | छोटी-छोटी चिड़ियाँ | ||
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मँझोले परेवे | मँझोले परेवे | ||
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बड़े-बड़े पंखी | बड़े-बड़े पंखी | ||
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डैनों वाले डील वाले | डैनों वाले डील वाले | ||
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डौल के बैडौल | डौल के बैडौल | ||
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उड़ने जहाज़ | उड़ने जहाज़ | ||
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कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले | कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले | ||
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तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली | तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली | ||
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उपयोग-सुंदरी | उपयोग-सुंदरी | ||
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बेपनाह कायों कोः | बेपनाह कायों कोः | ||
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गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी | गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी | ||
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पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि | पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि | ||
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रूप-रेखा को | रूप-रेखा को | ||
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और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो | और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो | ||
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धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को | धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को | ||
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हरा देगी ! | हरा देगी ! | ||
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बावरे अहेरी रे | बावरे अहेरी रे | ||
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कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः | कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः | ||
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एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को | एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को | ||
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दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा ? | दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा ? | ||
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ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे | ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे | ||
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मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के | मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के | ||
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आलोक की अनी से अपनी, | आलोक की अनी से अपनी, | ||
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गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः | गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः | ||
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विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा | विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा | ||
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मेरी आँखे आँज जा | मेरी आँखे आँज जा | ||
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कि तुझे देखूँ | कि तुझे देखूँ | ||
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देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये | देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये | ||
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पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे – | पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे – | ||
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बावरे अहेरी | बावरे अहेरी | ||
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22:09, 3 नवम्बर 2009 का अवतरण
भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ
मँझोले परेवे
बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले
डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदरी
बेपनाह कायों कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि
रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को
हरा देगी !
बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा ?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखे आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे –
बावरे अहेरी