"बिरला गान / अनीता सैनी" के अवतरणों में अंतर
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+ | ज्यों ज़िंदगी ने सारे अनसुलझे रहस्य | ||
+ | स्याही में लिप इन्हीं पन्नों में छुपाए हैं | ||
+ | उसकी ताक़त से रू-ब-रू | ||
+ | क़लम सहेजकर रखती है। | ||
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+ | क़लम के अपमान पर खीझती | ||
+ | सीले भावों की बदरी-सी बरसती | ||
+ | उसके स्पर्श मात्र से झरता प्रेम | ||
+ | वह वियोगिनी-सी तड़प उठती है। | ||
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+ | पंन्नों पर उँगली घुमाती | ||
+ | एक-एक पंक्ति को स्पर्शकर | ||
+ | बातें कविता-कहानियों-सी गढ़ती | ||
+ | शब्द नहीं | ||
+ | आँखें बंदकर अनगढ़ भावों को पढ़ती है। | ||
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+ | अनपढ़ नहीं है वह | ||
+ | गृहस्थी की उलझनों में उलझी | ||
+ | शब्दों से मेल-जोल कम रखती है | ||
+ | उनसे जान-पहचान का अभाव | ||
+ | बढ़ती दूरियों से बेचैनी में सिमटी | ||
+ | आत्म छटपटाहट से लड़ती है। | ||
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+ | शब्दों को न पहचानना खलता है उसे | ||
+ | आत्मविश्वास की उठती हिलोरों संग | ||
+ | साँझ की लालिमा-सी | ||
+ | भोर का उजाला लिए कहती है- | ||
+ | लिखती है मेरी बेटी | ||
+ | क्या लिखती है वह नहीं जानती | ||
+ | जानती है बस इतना कि लिखती है मेरी बेटी | ||
+ | पहाड़-सी कमी | ||
+ | छोटे से वाक्य में पूर्ण कर लेती है माँ। | ||
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00:34, 7 जुलाई 2023 के समय का अवतरण
समय ने सफ़ाई से छला
उस सरल-हृदय ने मान लिया
कि गृहस्थ औरतों का क़लम पर
दूर-दूर तक कोई अधिकार नहीं।
अतृप्त निगाहों से घूरती किताबों को
ज्यों ज़िंदगी ने सारे अनसुलझे रहस्य
स्याही में लिप इन्हीं पन्नों में छुपाए हैं
उसकी ताक़त से रू-ब-रू
क़लम सहेजकर रखती है।
क़लम के अपमान पर खीझती
सीले भावों की बदरी-सी बरसती
उसके स्पर्श मात्र से झरता प्रेम
वह वियोगिनी-सी तड़प उठती है।
पंन्नों पर उँगली घुमाती
एक-एक पंक्ति को स्पर्शकर
बातें कविता-कहानियों-सी गढ़ती
शब्द नहीं
आँखें बंदकर अनगढ़ भावों को पढ़ती है।
अनपढ़ नहीं है वह
गृहस्थी की उलझनों में उलझी
शब्दों से मेल-जोल कम रखती है
उनसे जान-पहचान का अभाव
बढ़ती दूरियों से बेचैनी में सिमटी
आत्म छटपटाहट से लड़ती है।
शब्दों को न पहचानना खलता है उसे
आत्मविश्वास की उठती हिलोरों संग
साँझ की लालिमा-सी
भोर का उजाला लिए कहती है-
लिखती है मेरी बेटी
क्या लिखती है वह नहीं जानती
जानती है बस इतना कि लिखती है मेरी बेटी
पहाड़-सी कमी
छोटे से वाक्य में पूर्ण कर लेती है माँ।